♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥क्यूँ ...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
क्यूँ बिकता है प्रेम यहाँ पर, क्यूँ बिकते हैं भाव यहाँ पर!
क्यूँ बिकती है दवा यहाँ पर, क्यूँ दुखते हैं घाव यहाँ पर!
देखो उधर किसी कोने में, मनुज की प्रीती झुलस रही है!
उसके मन मंदिर में केवल, लोभ की बारिश बरस रही है!
अपनी आनंदों में केवल, आज का मानव डूब चूका है,
कहीं पे बीवी, कभी पे बहना, कहीं पे माता तरस रही है!
क्यूँ मिटता है यहाँ समर्पण, क्यूँ मिटते सदभाव यहाँ पर!
क्यूँ बिकता है प्रेम यहाँ पर, क्यूँ बिकते हैं भाव यहाँ पर....
कोई घरों को फूंक रहा है, कोई किसी का यौवन लूटे!
कोई किसी का नीर बहाए, कहीं खून की धारा फूटे!
आज रगों में बहने वाला, खून भी पानी जैसा लगता,
अपनेपन का भी नाता अब, आज यहाँ पल भर में टूटे!
क्यूँ रोती है आंख यहाँ पर, क्यूँ लुटते हैं ख्वाब यहाँ पर!
क्यूँ बिकता है प्रेम यहाँ पर, क्यूँ बिकते हैं भाव यहाँ पर....
आज आदमी को मानव भी, कहने में आती है लज्जा!
औरों के घर रहें-गिरें पर, कायम हो अपने घर सज्जा!
"देव" ये कैसा लालच देखो, आज आदमी ने ओढा है,
मानवता की ढही ईमारत, टुटा- फूटा छत और छज्जा!
क्यूँ रोती है आंख यहाँ पर, क्यूँ लुटते हैं ख्वाब यहाँ पर!
क्यूँ बिकता है प्रेम यहाँ पर, क्यूँ बिकते हैं भाव यहाँ पर!"
"आज मानवता जिस प्रकार से समाप्त होती जा रही है! मनवा सिर्फ अपने लालच के
मद में समाज, सदभाव, अपनायत को मिटाता चला जा रहा है, उससे कैसे मानवता
जीवित बच पायेगी?
चेतन रामकिशन "देव"
दिनांक- ०५.०१.२०१२
यह रचना मेरे ब्लॉग पर पूर्व प्रकाशित!
!
क्यूँ बिकता है प्रेम यहाँ पर, क्यूँ बिकते हैं भाव यहाँ पर!
क्यूँ बिकती है दवा यहाँ पर, क्यूँ दुखते हैं घाव यहाँ पर!
देखो उधर किसी कोने में, मनुज की प्रीती झुलस रही है!
उसके मन मंदिर में केवल, लोभ की बारिश बरस रही है!
अपनी आनंदों में केवल, आज का मानव डूब चूका है,
कहीं पे बीवी, कभी पे बहना, कहीं पे माता तरस रही है!
क्यूँ मिटता है यहाँ समर्पण, क्यूँ मिटते सदभाव यहाँ पर!
क्यूँ बिकता है प्रेम यहाँ पर, क्यूँ बिकते हैं भाव यहाँ पर....
कोई घरों को फूंक रहा है, कोई किसी का यौवन लूटे!
कोई किसी का नीर बहाए, कहीं खून की धारा फूटे!
आज रगों में बहने वाला, खून भी पानी जैसा लगता,
अपनेपन का भी नाता अब, आज यहाँ पल भर में टूटे!
क्यूँ रोती है आंख यहाँ पर, क्यूँ लुटते हैं ख्वाब यहाँ पर!
क्यूँ बिकता है प्रेम यहाँ पर, क्यूँ बिकते हैं भाव यहाँ पर....
आज आदमी को मानव भी, कहने में आती है लज्जा!
औरों के घर रहें-गिरें पर, कायम हो अपने घर सज्जा!
"देव" ये कैसा लालच देखो, आज आदमी ने ओढा है,
मानवता की ढही ईमारत, टुटा- फूटा छत और छज्जा!
क्यूँ रोती है आंख यहाँ पर, क्यूँ लुटते हैं ख्वाब यहाँ पर!
क्यूँ बिकता है प्रेम यहाँ पर, क्यूँ बिकते हैं भाव यहाँ पर!"
"आज मानवता जिस प्रकार से समाप्त होती जा रही है! मनवा सिर्फ अपने लालच के
मद में समाज, सदभाव, अपनायत को मिटाता चला जा रहा है, उससे कैसे मानवता
जीवित बच पायेगी?
चेतन रामकिशन "देव"
दिनांक- ०५.०१.२०१२
यह रचना मेरे ब्लॉग पर पूर्व प्रकाशित!
!