Monday 18 September 2017

♥♥जड़वत...♥♥

♥♥♥♥♥♥♥♥जड़वत...♥♥♥♥♥♥♥♥
सजल नयन हैं, तुम बिन पीड़ा, जड़वत मेरी गति हो गई। 
हृदय टूटकर बिखरा पथ पर, तुम बिन गहरी क्षति हो गई। 
तन, मस्तक सब केश, कंठ भी विरह भाव से प्रभावित हैं,
तुम बिन मन को कुछ न भाये, तुमको अर्पित मति हो गई। 

खाई थी सौगंध जन्म की, किन्तु नाता तोड़ रहे हैं। 
अपने स्वजन बुरे समय में, मुझसे मुख को मोड़ रहे हैं,
मैं एकाकी शिशु की भांति, बोध नहीं है युद्ध कला का,
निर्मोही होकर के मुझको, अग्निपथ में छोड़ रहे हैं। 

मुझको एकदम किया बहिष्कृत, तृप्त जो उनकी रति हो गई। 
सजल नयन हैं, तुम बिन पीड़ा, जड़वत मेरी गति हो गई ...

होकर के निर्दोष भी मुझको, क्यों कर कारावास दिया है। 
न ही सौंपी हर्ष की धरती, न सुख का आकाश दिया है। 
तुमने अपने महल दुमहले चमकाए हैं उजले पन में,
किन्तु सक्षम होकर तुमने, न मुझको प्रकाश दिया है। 

 देखो मेरी अनुभूति की, न चाहकर भी यति हो गई।  
सजल नयन हैं, तुम बिन पीड़ा, जड़वत मेरी गति हो गई.... 

लगता है बारूद भरा है, मेरे मन की दीवारों में। 
स्याह हो गया जीवन पूरा, भय लगता है उजियारों में। 
" देव " ये कैसी परिपाटी है, कैसा मन का उत्पीड़न है,
अब सावन में पतझड़ लगता, नहीं लगन अब श्रंगारों में।  

मेरी आत्मा प्रतीक्षा के अंगारों में सती हो गई। 
सजल नयन हैं, तुम बिन पीड़ा, जड़वत मेरी गति हो गई। "


......चेतन रामकिशन "देव"……
दिनांक- १८.०९.२०१७