Saturday 27 April 2019

♥♥♥दो घड़ी प्यार... ♥♥♥♥

दो घड़ी प्यार...
रोज़ इनकार न किया करिये।
दो घड़ी प्यार भी किया करिये।

बिजलियाँ ही न गिराओ दिल पर,
थोड़ी बौछार भी किया करिये।

नाम कागज़ पे सिर्फ क्या लिखना,
सच में हक़दार भी किया करिये।

कैसी हो जीती हो सिर्फ अपने लिए ,
मेरा किरदार भी जिया करिये।

देखके हमको क्यों झुकाओ नज़र,
उनसे कुछ वार भी किया करिये।

अपनी जिद ही, नहीं हमेशा सही
थोड़ा मनुहार भी किया करिये।

" देव " मेरे बिना, न जी पाओ ,
सच को स्वीकार भी किया करिये।

चेतन रामकिशन "देव "

दिनांक-२७ -०४ -२०१९
(सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरी ये रचना मेरे ब्लॉग http://chetankavi.blogspot.in पर पूर्व प्रकाशित)




Friday 26 April 2019

♥♥खिड़कियां... ♥♥

♥♥♥♥♥खिड़कियां... ♥♥♥♥♥♥
सखी तेरे वापस आने की, सब उम्मीदें मंद हो गयीं।
जब तेरे घर का दरवाजा, सारी खिड़की बंद हो गयीं।
इतना निर्मोही होकर के, कैसे तूने फिर लिया मुंह,
हमसे पूछो, बिना तुम्हारे, साँसे भी पाबंद हो गयीं।

गुज़र रही है क्या क्या दिल पर, क्या बतलायें, क्या दिखलायें।
ये तो सच है प्यार है तुमसे, ग़म सहकर भी क्या झुठलायें।
लेकिन मैं स्तब्ध बहुत हूँ, कैसे मार्ग बदल जाते हैं।
मरते दम तक का वादा कर, बचकर लोग निकल जाते हैं।

कसमें टूटीं, वादे टूटे, झूठी सब सौगंध हो गयीं।
सखी तेरे वापस आने की, सब उम्मीदें मंद हो गयीं।

प्यार, वफ़ा के सारे किस्से और कहानी मौन हुयी हैं।
मेरी ऑंखें कल तक अपनीं, आज तुम्हीं को कौन हुयी हैं।
आज न जाने क्यों तुम अपनी, परछाईं से भाग रही हो।
कुछ नामी लोगों की खातिर, दिल के रिश्ते त्याग रही हो।

दुनिया में झूठी बातें भी, मानों अब गुलकंद हो गयीं। 
सखी तेरे वापस आने की, सब उम्मीदें मंद हो गयीं।

चेतन रामकिशन "देव "
दिनांक-२६ -०४ -२०१९ 

Wednesday 10 April 2019

♥हल... ♥

♥♥♥♥♥हल... ♥♥♥♥♥♥
अनवरत संघर्ष का परिणाम फिर निष्फल हुआ है।
थे उचित प्रयास किन्तु , आज फिर से छल हुआ है।
इन विषमता के क्षणों में, भय रखूं क्या हारने का,
कौनसा अश्रु बहाकर , उलझनों का हल हुआ है।

पथ में कंटक, पग में छाले, किन्तु फिर भी चल रहा हूँ,
घोर से काले तिमिर में, दीप बनकर जल रहा हूँ।

थाम ले जो आज को, उसका ही एक दिन कल हुआ है। 
कौनसा अश्रु बहाकर , उलझनों का हल हुआ है।

गीत की लय भी रुंधी है, और नमी है पंक्तियों में।
प्रेम की, अपनत्व की, भाषा कहाँ है व्यक्तियों में।
"देव " आगे देखते हैं, आग चख़कर देख लेंगे,
आज तो सलंग्न हैं बस, शाब्दिक अभिव्यक्तियों में।

अब नहीं कोई निवेदन, अपने अधरों से करूँगा।
अपने मन के घाव भी अब, औषधि के बिन भरूंगा।

मिथ्या की उपमा से पत्थर, कब भला मलमल हुआ है।
कौनसा अश्रु बहाकर , उलझनों का हल हुआ है। "

चेतन रामकिशन "देव "
दिनांक-१०-०४ -२०१९