Saturday 28 February 2015

♥♥♥पिता...♥♥♥


♥♥♥♥♥♥♥पिता...♥♥♥♥♥♥♥♥
पिता जो होते, हम खुश होते,
बिना पिता के बहुत अधूरे।
सलाह पिता जी की मिलती तो,
हो जाते कुछ सपने पूरे।

थाम के ऊँगली, उनकी हम भी,
जीवन पथ पर आगे बढ़ते। 
जब उनका साहस मिलता तो,
हम भी ऊँची डाली चढ़ते। 

हमे दर्द हो तो माँ के संग,
पिता हमारे नींद से जगते। 
पिता हमारी ओर देखते,
हम उनके सीने से लगते। 

पिता जो होते तो माँ की भी,
आँख नहीं पथराई रहतीं। 
वो भी होती अगर सुहागिन,
स्याह कोई छाई न रहती। 

लालन पालन को हम सबके,
काम पे जाते रोज सवेरे। 
सलाह पिता जी की मिलती तो,
हो जाते कुछ सपने पूरे...

पांच तत्व में मिली देह जब,
पिता की तो हम घंटो रोये। 
माँ की ऑंखें हुईं लबालब,
भाई बहन पल को न सोये। 

बरसो बीते गये पिता को,
दूर मगर वो कब होते हैं। 
माँ होती ममता की देवी,
और पिता जी रब होते हैं। 

काश वक़्त ये करे वापसी,
और पिता जी घर आ जायें। 
भैया, बहनें, माँ और हम सब,
उनके सीने से लग जायें।  

"देव" साथ में होली खिलती,
हो जाते हम पीले, भूरे। 
सलाह पिता जी की मिलती तो,
हो जाते कुछ सपने पूरे। "

.......चेतन रामकिशन "देव"........
दिनांक-०१.०३.२०१५

♥♥♥मिटटी की देह...♥♥♥



♥♥♥♥♥♥♥♥♥मिटटी की देह...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
शांत है अब देह मानो, कोई स्पंदन नहीं है। 
देह मिटटी की हुयी है, अब गति का तन नहीं है। 
एक ही क्षण में मिली, परमात्मा से आत्मा,
शव जलाने चल पड़े सब, शेष अब जीवन नहीं है। 

है नियम जाने का तो फिर, वेदना इतनी क्यों होती। 
क्यों किसी को याद करके, आँख ये दिन रात रोती। 

मैं जो पूछूं तो कहें सब, ये सही प्रश्न नहीं है। 
शांत है अब देह मानो, कोई स्पंदन नहीं है... 

कल तलक आँगन में अपने, स्वर हमारे बोलते थे। 
प्राण वायु मिल रही थी, हम जो द्वारा खोलते थे। 
"देव" पर झपकी पलक तो, थम गये हैं दृश्य सारे,
दूर होना चाहते सब, साथ में जो डोलते थे। 

खुद को अब खुद ही की बातें, क्यों पराई लग रहीं हैं।  
लौटकर आये न बेशक, आँख कितनी जग रही है। 

जिंदगी मिलती नहीं फिर, उसके ऊपर धन नही है। 
शांत है अब देह मानो, कोई स्पंदन नहीं है। "

................चेतन रामकिशन "देव"................
दिनांक-२८.०२.२०१५

Friday 27 February 2015

♥♥♥शूल की उपमा...♥♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥शूल की उपमा...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
शूल की उपमा मिली तो, रक्त घावों से बहा है। 
है समय विपरीत तो सारा जहाँ ये हंस रहा है। 
क्या हमारी हस्त रेखा, टूटकर ठहरी है पथ में,
या शिखर इंसानियत का, अब जमीं में धंस रहा है। 

प्रेम के पौधे कटे हैं, पेड़ विष के उग रहे हैं। 
आज शत्रु आदमी के, आदमी ही लग रहे हैं। 
वेदना देकर भी उनको, बोझ न कोई मनों पर, 
हम भले काँटों की शैया, पे गुजारा कर रहे हैं। 

बेगुनाहों के गले पर, फंदा अब तो कस रहा है।  
शूल की उपमा मिली तो, रक्त घावों से बहा है ... 

रात जगमग उनके घर में, हम तिमिर को पी रहे हैं। 
लोग पर अपराध करके, भी अहम में जी रहे हैं। 
"देव" मन की घास रौंदी, चीख निकली भावना की,
हैं दवायें महंगी त्यों ही, घाव हम खुद सी रहे हैं। 

छटपटाया भोला पंछी, जल में जो फंस रहा है। 
शूल की उपमा मिली तो, रक्त घावों से बहा है। "

...............चेतन रामकिशन "देव"................
दिनांक-२८.०२.२०१५

Thursday 26 February 2015

♥♥गुलकंद ...♥♥


♥♥♥♥♥गुलकंद ...♥♥♥♥♥♥
जीवन को आनंद मिल गया। 
और शब्दों को छंद मिल गया। 
तुम्हें देखकर मन हर्षित हो,
फूलों को मकरंद मिल गया।

सखी ये अम्बर इंद्रधनुषी,
और भूतल रंगीन हो गया। 
साँझ सवेरे तेरे ध्यान में,
मन मेरा तल्लीन हो गया। 
तुमसे है सम्बन्ध आत्मिक,
किन्तु फिर भी नयन हों प्यासे,
एक क्षण को जो दूर हुईं तुम,
मैं पानी बिन मीन हो गया। 

मधु दिया जो प्रेम का तुमने,
जीवन को गुलकंद मिल गया। 
तुम्हें देखकर मन हर्षित हो,
फूलों को मकरंद मिल गया...

मन से मन का तार मिल गया ,
कविता को आधार मिल गया । 
तुमने घर में कदम रखा जो,
खुशियों का संसार मिल गया । 
"देव" तुम्हारा मुख प्यारा है,
और व्यवहार बहुत मनोहारी,
तुमने जब सम्मान दिया तो,
दुनिया में सत्कार मिल गया । 

तुमने जब स्पर्श किया तो,
सपनों को स्पंद मिल गया। 
तुम्हें देखकर मन हर्षित हो,
फूलों को मकरंद मिल गया। "

......चेतन रामकिशन "देव".......
दिनांक-२६.०२.२०१५

Wednesday 25 February 2015

♥♥♥मैं पुरुष हूँ...♥♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥मैं पुरुष हूँ...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
शांत जल के भाव लेकर, मौन हूँ तट के किनारे।
कौन है जो खो गया है, किसको मेरा मन पुकारे।

मैं पुरुष हूँ इसीलिये क्या, भाव मेरे अनुसने हैं।
झूठ क्यों लगते हैं तुमको, स्वप्न जो मैंने बुनें हैं।
क्या जगत में स्त्री होना, प्रेम का सूचक है केवल,
क्यों मुझे उपहास मिलता, भाव जो मन के सुने हैं।

है पुरुष होना गलत तो, कौन है जो ये सुधारे।
कौन है जो खो गया है, किसको मेरा मन पुकारे...

क्यों तुम्हें लगता है केवल, प्रेम की तुम ही निधि हो। 
तुम क्यों सोचो प्रेम पथ पर, एक ही बस तुम सधी हो। 
जो पुरुष हूँ तो क्या मेरा, भावना से रिक्त है मन,
मैं भी कोई विष नहीं हूँ, तुम जो कोई औषधी हो। 

आपकी तरह ही बहता, प्रेम जीवन में हमारे। 
कौन है जो खो गया है, किसको मेरा मन पुकारे....

न पुरुष हर कोई अच्छा, न ही स्त्री हर सही है। 
और न वर्गीकरण से, प्रेम की धारा बही है। 
"देव" वो रिश्ता चलेगा, जिसमें दर्पण हों परस्पर,
बस स्वयंभू बनके जग में, प्रीत कब जीवित रही है। 

जीतकर भी क्या वो जीते, दंड पाकर हम जो हारे।  
कौन है जो खो गया है, किसको मेरा मन पुकारे। "

................चेतन रामकिशन "देव"................
दिनांक-२५.०२.२०१५

Tuesday 24 February 2015

♥♥गीत तुम्हारे...♥♥


♥♥♥♥गीत तुम्हारे...♥♥♥♥
कुछ रिश्ता है या नाता है। 
चैन नहीं तुम बिन आता है। 
तेरे प्यार से रंगत मिलती,
गीत तुम्हारे दिल गाता है। 

दिल कहता है हर लम्हे में,
बस तेरा दीदार हो मुझको। 
सात जन्म तक इस दुनिया में,
बस तुमसे ही प्यार हो मुझको। 
 तुम हमदम हो चाँद सरीखी,
और मैं रस्ते का पत्थर हूँ,
दुआ है मेरी लेकिन दिल से,
प्रीत मेरी स्वीकार हो तुमको।

तेरी सूरत जब भी देखूं,
दिल चुपके से मुस्काता है। 
तेरे प्यार से रंगत मिलती,
गीत तुम्हारे दिल गाता है....

तुमसे मिलने का मन होता,
बड़ा ही सुन्दर वो क्षण होता। 
बोझ नहीं रहता जीवन में,
बड़ा ही हल्का ये तन होता। 
"देव" तुम्हारे एहसासों में,
सारी रात गुजर जाती है,
साँझ, सवेरा भी सुखमय हो,
फूल सा महका अब दिन होता। 

सखी तुम्ही से लेकर चंदा,
धवल चांदनी बरसाता है। 
तेरे प्यार से रंगत मिलती,
गीत तुम्हारे दिल गाता है। "

......चेतन रामकिशन "देव".......
दिनांक-२४.०२.२०१५

Monday 23 February 2015

♥♥बेवफाई...♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥बेवफाई...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
ज़िक्र मेरा करते करते, आँख क्यों नम हो रही है। 
क्या तुम्हारी बेवफाई, आज बेदम हो रही है। 

लौटकर तुम तब न आये, मिन्नतें कितनी बयां कीं,
अब क्या आना, जब हमारी उम्र ये कम हो रही है। 

पत्थरों की चोट देकर, दोस्तों संग जश्न में थे,
वक़्त बदला तो उन्हीं की, राह गुमसुम हो रही है। 

अब न मेरे पास आना, आग हूँ मैं जल पड़ोगे,
है लपट ज्वालामुखी की, तेज हरदम हो रही है। 

सोचता हूँ माफ़ कर दूँ, तुमको मैं इंसानियत पर,
पर हमारी रूह ऐसा सुनके, पुरनम हो रही है।  

इश्क़ की बातें क्या करना, कद्र जब दिल की नहीं हो,
इसीलिए तो प्यार की, इज़्ज़त बहुत कम हो रही है। 

"देव" एक छोटी जगह भी, दिल की तुमको दे सकूँ न,
क्यूंकि अब तन्हाई खुद की, मेरी हमदम हो रही है।  "

.................चेतन रामकिशन "देव".................
दिनांक-२४.०२.२०१५

Sunday 22 February 2015

♥♥केंद्र बिंदु...♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥केंद्र बिंदु...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
जल गया दीपक सुबह का, कुछ अँधेरा थम रहा है। 
रात के व्याकुल क्षणों का मोम जो था जम रहा है। 
ओस का अमृत टपककर, गिर रहा मेरे अधर पर,
जोड़ता हूँ धीरे धीरे, शेष जितना दम रहा है। 

सोख ले जो वेदना वो, यंत्र बनना चाहता हूँ। 
कुछ क्षणों को ही सही, स्वतंत्र बनना चाहता हूँ। 

त्यागना चाहता हूँ सारा, आज तक जो भ्रम रहा है।      
जल गया दीपक सुबह का, कुछ अँधेरा थम रहा है।

भूलना चाहता हूँ उनको, वेदना जो सौंपते हैं। 
जो किसे के मन की भूमि पे, दुखों को रोंपते हैं। 
"देव" न कमजोर हूँ पर, सोचता हूँ इस दिशा में,
युद्ध क्या करना जो चाकू, पीठ तल में घोंपते हैं। 

केंद्र बिंदु पर पहुंचकर, शोध करना चाहता हूँ। 
अपने मन की शक्तियों का, बोध करना चाहता हूँ। 

अब नहीं अपनाउंगा वो, व्यर्थ का जो श्रम रहा है।  
जल गया दीपक सुबह का, कुछ अँधेरा थम रहा है। "

.................चेतन रामकिशन "देव"..................
दिनांक-२३.०२.२०१५

चुप चुप



<3

चुप चुप रहना भी मुश्किल है। 
और कुछ कहना भी मुश्किल है। 
मुलाकात से लाज लगे पर,
दूरी सहना भी मुश्किल है। 

जब से प्यार किया है उनसे,
हरा भरा मौसम लगता है। 
बिन उनके में अलसाई थी,
अब चलने का दम लगता है।
पल भर में ही ख्वाब हजारों,
मैं उनके संग बुन लेती हूँ ,
कुछ वो मेरी सुनते हैं और,
कुछ मैं उनकी सुन लेती हूँ। 

हम दोनों हैं नदी की धारा,
बिछड़ के बहना भी मुश्किल है। 
मुलाकात से लाज लगे पर,
दूरी सहना भी मुश्किल है। " <3

चेतन रामकिशन "देव" Chetan Ramkishan "Dev "

Thursday 19 February 2015

♥♥♥वास्ता...♥♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥वास्ता...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
पांव में छाले पड़े हैं, जिस्म भी अब काँपता है। 
कौन है पर जो हमारे, दर्द को अब भाँपता है। 

एड़ियां भी फट गयीं हैं, और कांटे चुभ रहे हैं,
क्या कोई इस उम्र में भी, रास्तो को नापता है। 

रात काटी है तड़प कर, दिन में रोटी की जुगत हो,
जिंदगी का जाने कब तक, मुझ से ऐसा वास्ता है। 

फूल की राहों पे चलना, हक़ है केवल मालिकों का,
क्या किसी मुफ़लिस की खातिर, भी गुलों का रास्ता है। 

कोई कम कपड़ों में हो तो, कैमरे चलने लगेंगे,
पर किसी भूखे का नंगा, तन भी कोई छापता है। 

लफ्ज़ तो इतने बड़े के, आँख में आते नहीं हैं,
क्या मगर दिल से भी कोई, प्रेम सागर वांचता है। 

"देव" क्या कहना किसी से, कौन है हमदर्द आखिर,
मतलबों के इस जहाँ में, मतलबों का वास्ता है। "

.................चेतन रामकिशन "देव"..................
दिनांक-२०.०२.२०१५

♥♥वृतचित्र ...♥♥


♥♥♥♥वृतचित्र ...♥♥♥♥♥♥
वृतचित्र वो है जीवन का। 
प्रिय मित्र वो है जीवन का। 
मेरा हर क्षण करे सुगन्धित,
लगे इत्र वो है जीवन का। 

उसके बिन जीवन भारी है। 
दुश्वारी है, लाचारी है। 
उसे देखकर मन खुश होता,
छवि बहुत उसकी प्यारी है। 

वो आये मेरे ख्वाबों में,
लगे चित्र वो है जीवन का।  
मेरा हर क्षण करे सुगन्धित,
लगे इत्र वो है जीवन का... 

उसके साथ मेरा दिन उजला,
उससे रात धवल होती है। 
उसे देखकर ज्योति मिलती,
मानो वो कोई मोती है। 
"देव" जहाँ में उससे बढ़कर,
मेरे दिल को कोई नहीं है,
उसके बिन दिल में पीड़ा हो,
आँख मेरी हर पल रोती है। 

धूप में उसका साया सुख दे,
लगे छत्र वो है जीवन का। 
मेरा हर क्षण करे सुगन्धित,
लगे इत्र वो है जीवन का। "

......चेतन रामकिशन "देव".........
दिनांक-१९.०२.२०१५

Wednesday 18 February 2015

♥♥उमस...♥♥


♥♥♥♥♥उमस...♥♥♥♥♥♥
मैं आँखों से बरस रहा हूँ। 
लेकिन जल को तरस रहा हूँ। 
बाहर से मैं खुश दिखता हूँ,
पर भीतर से झुलस रहा हूँ। 

अंतर्मन पे चोट लगी है,
पर उसका उपचार नहीं है। 
वही उठायें सबपे ऊँगली,
खुद जिनका आधार नहीं है।  
लोगों का दिल ज़ख़्मी करके,
देख रहेंगे हैं खूब तमाशा,
वो क्या जानें मानवता को,
जिनके दिल में प्यार नहीं है। 

दम घुटता, हवा नहीं है,
मन ही मन में, उमस रहा हूँ। 
बाहर से मैं खुश दिखता हूँ,
पर भीतर से झुलस रहा हूँ। 

पीठ में खंजर घोंपा जाये,
चीख किसी की कब सुनते हैं। 
लोग अजब हैं इस दुनिया के,
बस अपना मतलब चुनते हैं। 
"देव" किसी की आह को सुनकर,
अनदेखा करने की कोशिश,
किसी के घर को सौंप तबाही,
नफरत के जाले बुनते हैं। 

प्यार वफ़ा के ढाई अक्षर,
मैं सुनने को तरस रहा हूँ। 
बाहर से मैं खुश दिखता हूँ,
पर भीतर से झुलस रहा हूँ। "

........चेतन रामकिशन "देव"..........
दिनांक-१८.०२.२०१५


Monday 16 February 2015

♥♥दर्द की परछाईं...♥♥


♥♥♥♥♥दर्द की परछाईं...♥♥♥♥♥♥♥
ख्वाब फिर अंगड़ाई लेकर आ रहे हैं। 
दर्द की परछाईं लेकर आ रहे हैं। 

दर्द की कैसे दवा मुझको मिलेगी,
इस कदर महंगाई लेकर आ रहे हैं। 

भीड़ में भी हर घड़ी तनहा करे,
हर लम्हा तन्हाई लेकर आ रहें हैं। 

मुझको ठोकर मार जो आगे बढे,
मेरी खातिर खाई लेकर आ रहे हैं। 

लूटकर पैसा जो घर में भर रहे,
दान को एक पाई लेकर आ रहे हैं। 

क़त्ल करके उनको न कोई सजा,
पर मेरी रुसवाई लेकर आ रहे हैं। 

"देव" जिसने उम्र भर आंसू दिये,
आज वो शहनाई लेकर आ रहे हैं। "

........चेतन रामकिशन "देव"..........
दिनांक-१६.०२.२०१५

Sunday 15 February 2015

♥♥छाँव के पेड़...♥♥


♥♥♥♥♥♥♥छाँव के पेड़...♥♥♥♥♥♥♥♥♥
हम मजहबी खेमों में, जो बंटते चले गये। 
वो पेड़ जो थे छाँव के, कटते चले गये। 

झुलसा रही है धूप गम की, जिंदगी नाखुश,
बादल जो प्यार के थे, वो छंटते चले गये। 

धरती की प्यास कैसे बुझे, कौनसी अकल,
तालाब, जो पोखर, यहाँ पटते चले गये। 

मेरा बयां, मेरी तड़प, ख़ाक वो सुनते,
जुमले जो झूठ के यहाँ, रटते चले गये। 

जिससे हुआ था इश्क़, उसको कद्र ही नहीं,
पागल थे हम उस राह जो, डटते चले गये। 

चिथड़े भी देख उनको तरस, न कोई परवाह,
ज्वालामुखी के जैसे हम, फटते चले गये। 

दिल टूटने के बाद, मुझमे आया फ़र्क़ ये,
हम "देव" अपने आप से, कटते चले गये। " 

............चेतन रामकिशन "देव"..............
दिनांक-१६.०२.२०१५

Saturday 14 February 2015

♥♥...आह ♥♥


♥♥♥♥♥...आह ♥♥♥♥♥
दिल में दर्द बहुत होता है। 
जब कोई निर्धन रोता है। 
उसकी रात कटे रो रोकर,
भूखा प्यासा दिन होता है। 

क्यों निर्धन के हक़ पे डाला,
रोज यूँ ही डाला जाता है। 
क्यों निर्धन की तारीखों को,
बस कल पे टाला जाता है। 
क्यों निर्धन को ठगने वाले,
गैर वतन को काला धन दें,
जो लूटा करते निर्धन को,
क्यों उनका पाला जाता है। 

निर्धन कृषक अन्न उगाये,
तब ये सारा जग सोता है। 
उसकी रात कटे रो रोकर,
भूखा प्यासा दिन होता है... 

नये शहर की नयी योजना,
रोज यहाँ विकसित होती है। 
पर निर्धन की ओर किसी की,
सोच नहीं दृष्टित होती है। 
"देव" अगर निर्धन को यूँ ही,
रखा हाशिये पे जायेगा। 
तो ये निर्धन भूखा, प्यासा,
ऐसे ही मारा जायेगा। 

मजदूरी भी इतनी कम है,
नहीं गुजारा तक होता है।  
उसकी रात कटे रो रोकर,
भूखा प्यासा दिन होता है। "

.......चेतन रामकिशन "देव"……  
दिनांक-१५.०२.२०१५

♥♥प्रेम ग्रन्थ...♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥प्रेम ग्रन्थ...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
प्रेम ग्रन्थ मैं लिख नहीं सकती, जो तुम उसके पात्र नहीं हो। 
सात जन्म का रिश्ता तुमसे, इसी जन्म के मात्र नहीं हो। 
तुमने मुझको प्रेम सिखाया, प्रेम के सागर के तुम स्वामी,
तुममें क्षमता मन पढ़ने की, तुम प्रथम के छात्र नहीं हो। 

प्रेमग्रंथ का हर एक पन्ना और समूचा सार तुम्ही हो। 
कलम मेरा तुमसे प्रेरित हो, लेखन का आधार तुम्ही हो। 

तुम कर्मठ हो, ज्योतिर्मय हो, तिरस्कार के पात्र नहीं हो। 
तुममें क्षमता मन पढ़ने की, तुम प्रथम के छात्र नहीं हो... 

प्रेम ग्रन्थ की हर पंक्ति में, महक तेरे एहसास की होगी। 
होगी सोंधी खुशबु थल की, और चमक आकाश की होगी। 
"देव" तुम्हारे अपनेपन के, भावों का विस्तार लिखूंगी,
मिलन के छायाचित्र में रंगत, परिणय की उल्लास की होगी। 

 बिना तुम्हारे संपादन के, न ही शोधन हो पायेगा। 
 बिना नाम का ग्रन्थ रहेगा, न उद्बोधन हो पायेगा। 

प्रेम ग्रन्थ के तुम प्रवर्तक, तुम कोई पाठक मात्र नहीं हो। 
प्रेम ग्रन्थ मैं लिख नहीं सकती, जो तुम उसके पात्र नहीं हो। "

......................चेतन रामकिशन "देव"…....................
दिनांक-१४.०२.२०१५

Friday 13 February 2015

♥♥ये कैसा अमरप्रेम...♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥ये कैसा अमरप्रेम...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
प्रेम को ईश्वर की संज्ञा दे, पीड़ा क्यों प्रदान कर रहे। 
एक क्षण में ही तोड़ के नाता, जीवन से प्रस्थान कर रहे। 
कहाँ गयीं वो सब सौगन्धें, जिनका बहुत मान करते थे,
क्यों मेरे जीवित होते भी, तुम मुझको अवसान कर रहे। 

क्या कलयुग में प्रेम भावना, क्षण में जर्जर हो जाती है। 
यदि अमर है प्रेम जोत तो, कैसे नश्वर हो जाती है। 

क्यों फिर सबसे रहो प्रेम के, नारे का आहवान कर रहे।  
प्रेम को ईश्वर की संज्ञा दे, पीड़ा क्यों प्रदान कर रहे... 

प्रेम दिवस पर पुष्प भेंट कर, केवल प्यार नहीं होता है। 
बिना समर्पण प्रेम भाव का, बेड़ा पार नहीं होता है। 
करो वर्ष भर तुम उत्पीड़न और एक दिन दिखलाओ उपवन,
अभिमान इस प्रेम भाव का, सुखमय सार नहीं होता है। 

प्रेम जहाँ होता है वो जन, अत्याचार नही करते हैं। 
नहीं बेचते वो भावों को, वो व्यापार नहीं करते हैं। 

तुम मिथ्या के रौब गांठकर, क्यों मेरा अपमान कर रहे। 
प्रेम को ईश्वर की संज्ञा दे, पीड़ा क्यों प्रदान कर रहे... 

तुम क्या जानो कष्ट हमारा, तुमने मेरा भाव न जाना 
तुम बस खुद के लिये जिये हो, तुमने मेरा घाव न जाना। 
"देव" न लेना नाम प्यार का, प्यार का जब सत्कार नहीं तो,
तुम निर्दयी हो तुमने मेरे, अश्रु का सैलाब न जाना। 

कोमल मन को छलनी करके, अहंकार जो दिखलाते हैं। 
वे क्या जानें सौगंधों को, जो भावों को झुठलाते हैं। 

तुम व्यापारी अपने हित में, बस मेरा नुकसान कर रहे। 
प्रेम को ईश्वर की संज्ञा दे, पीड़ा क्यों प्रदान कर रहे। "


....................चेतन रामकिशन "देव"…................
दिनांक-१४.०२.२०१५ 

Thursday 12 February 2015

♥♥दस्तक...♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥दस्तक...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
दरवाजे पे प्यार की दस्तक, आँगन में खुश्बू लाती है। 
तुम्हे देखकर मन खुश होता, छवि तेरी मुझको भाती है। 
तेरी मीठी बोली सुनकर, अधरों पे घुल जाये शहद सा,
तू हंसती है तो लगता है, सारी दुनिया मुस्काती है। 

सूरत तेरी चंदा जैसी, खिली धुप सा मन तन लगता है। 
तेरे होने से ही थल पे, फूलों का उपवन खिलता है। 

तुम जगतीं मेरे ख्वाबों में, जब ये दुनिया सो जाती है। 
दरवाजे पे प्यार की दस्तक, आँगन में खुश्बू लाती है...

तुम चंदन सी पावन चिंतक, मेरी कविता बन जाती हो। 
यदि शरारत करता हूँ तो, लाज हया से सकुचाती हो। 
"देव" तुम्हारा संग संग चलना, मेरा रस्ता आसां करता,
मुझसे कोई गलती हो तो, भोलेपन से समझाती हो। 

नाम तुम्हारा सुनता हूँ तो, मेरा चेहरा खिल जाता है। 
सखी तुम्हारे रूप में मुझको, स्वर्ग धरा पे मिल जाता है। 

नहीं तनिक भी अच्छा लगता, दूर जो मुझसे तू जाती है।  
दरवाजे पे प्यार की दस्तक, आँगन में खुश्बू लाती है। "


......................चेतन रामकिशन "देव"….................
दिनांक-१२.०२.२०१४

Wednesday 11 February 2015

♥♥वनवास...♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥वनवास...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
नैन मेरे व्याकुल हैं तुम बिन, और मन में वनवास हुआ है। 
गगन से चंदा लुप्त हो गया, तिमिर भरा आकाश हुआ है। 
मेरी वेदना और दशा को, समझ के पग ले आओ वापस,
भूख प्यास सब भूल गया हूँ, विरह में उपवास हुआ है। 

प्रेम सरल है किन्तु तुमने, क्रोध से इसको कठिन बनाया। 
नहीं सुना मेरे पक्षों को, न ही अपना पक्ष सुनाया। 

हठधर्मी हम हुये थे दोनों, अब जाकर आभास हुआ है। 
नैन मेरे व्याकुल हैं तुम बिन, और मन में वनवास हुआ है... 

बिना तुम्हारे शिला के जैसा, न ही जीवन गतिमान है। 
तुम बिन कितनी वीरानी है, क्या ये तुमको अनुमान है। 
परित्याग करते हैं जैसे, वैसे मुझको छोड़ गयी हो,
तुम बिन जाने कैसा जग है, न ही भू, न आसमान है। 

इतना क्रोध नहीं हितकारी, स्वास्थ्य तुम्हारा गिर जायेगा। 
समय गया तो चला ही जाये, नहीं लौटकर फिर आयेगा। 

जरा बता दो क्या मेरे बिन, रहने का अभ्यास हुआ है। 
नैन मेरे व्याकुल हैं तुम बिन, और मन में वनवास हुआ है...

देखो घर का द्वार न बोले, कोई भी दीवार न बोले। 
अपना क़स्बा भी चुप चुप है, तुम बिन ये संसार न बोले। 
"देव" नहीं कुछ मन को भाये, घुटा घुटा सा दम रहता है,
सूख गया तुलसी का पौधा, पेड़ों का सिंगार न बोले। 

प्राण गये क्या तब आओगी, फिर आकर के क्या पाओगी। 
मुझे पता है, मुझे इस तरह, देख के तुम भी मर जाओगी। 

नहीं बची भावों की क्षमता, अंतिम ये प्रयास हुआ है। 
नैन मेरे व्याकुल हैं तुम बिन, और मन में वनवास हुआ है।"


.....................चेतन रामकिशन "देव"….................
दिनांक-११.०२.२०१५ 

Tuesday 10 February 2015

♥♥जिंदगी...♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥जिंदगी...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
कुछ दुआओं के सहारे, चल रही है जिंदगी। 
दर्द के सागर किनारे, चल रही है जिंदगी। 

वो नहीं आयेगा इसका, मेरे दिल को भी पता है,
क्यों उसे फिर भी पुकारे, चल रही है जिंदगी। 

खत हुये हैं राख लेकिन, याद शायद मिट न पायी,
त्यों ही लफ़्ज़ों को उभारे, चल रही है जिंदगी।  

टूटती बैसाखियां दें, दूर सब अपने हुये पर,
साथ क्यों फिर भी हमारे, चल रही है जिंदगी। 

फासलों की खाई चौड़ी, नाम के रिश्ते बचे हैं, 
झूठ के संग में गुजारे, चल रही है जिंदगी। 

आंसुओं का ब्याज देकर, क़र्ज़ गम का चुक रहा है,
बोझ को सर से उतारे, चल रही है जिंदगी। 

देखकर बर्बादियों को मेरी, वो खुश हो रहे हैं,
"देव" लेकर के अंगारे, जल रही है जिंदगी। "

.................चेतन रामकिशन "देव"…..............
दिनांक-११ .१०.२०१४


Monday 9 February 2015

♥♥पक्षपात...♥♥


♥♥♥♥♥पक्षपात...♥♥♥♥♥♥
पक्षपात, आघात हमे क्यूँ। 
विरह में व्याकुल रात हमे क्यूँ। 
अपनी विजय श्री लिखने को,
आखिर बोलो मात हमे क्यूँ। 

हम भी मानव हैं तुम जैसे,
फिर क्यों खुद को श्रेष्ठ समझना। 
कुदरत ने जब फ़र्क़ किया न,
तो क्यों खुद को ज्येष्ठ समझना। 
जीवन में इस प्रेम के पथ पर,
मैं से जो हम हो जाते हैं। 
उनमें अंतर नहीं रहे फिर,
वे मानव सम हो जाते हैं। 

स्वर्ण पत्र सबको देते हो,
बोलो सूखे पात हमे क्यों। 
अपनी विजय श्री लिखने को,
आखिर बोलो मात हमे क्यूँ...

गठबंधन या नातेदारी,
चाहें फूलों की फुलवारी। 
बिना समर्पण के नहीं होती,
रिश्तों की दुनिया उजियारी। 
"देव" जहाँ में समरसता से,
जो रिश्तों को अपनाते हैं। 
वही लोग एक एक में जुड़कर,
देखो ग्यारह बन जाते हैं। 

सबसे हंसकर बोल रहे पर,
नाम की ऐसे बात हमे क्यूँ। 
अपनी विजय श्री लिखने को,
आखिर बोलो मात हमे क्यूँ। "

......चेतन रामकिशन "देव"…...
दिनांक- ०९.०२.२०१५ 

Sunday 8 February 2015

♥♥दंड...♥♥


♥♥♥♥♥♥♥दंड...♥♥♥♥♥♥♥♥♥
विष पीने को बाध्य कर दिया। 
पूरा अपना साध्य कर दिया। 
मुझे दंड से नतमस्तक कर,
वो समझे आराध्य कर दिया। 

मुझे नहीं आता दुख देकर,
अपनापन रेखांकित करना। 
मन की कोमल वसुंधरा पर,
कंटक दुख के टंकित करना। 
उनको है अभ्यास तभी तो,
दुख का वितरण कर देते हैं,
मृत्य तट तक सूख सके न,
इतने अश्रु भर देते हैं। 

नहीं औषधि पारंगत है,
रोग बड़ा आसाध्य कर दिया। 
मुझे दंड से नतमस्तक कर,
वो समझे आराध्य कर दिया...

अश्रु धार बहे नयनों से, 
दुरित प्रकरण घटित हुआ है। 
शब्द मौन हैं, कुछ न बोलें,
मन विचलित और व्यथित हुआ है। 
"देव" जगत की नयी नीतियां,
मुझको समझ नहीं आती हैं,
आज यहाँ सम्बन्ध हर कोई,
नाम मात्र में निहित हुआ है। 

मेरे मन का चीर हरण कर,
घायल मेरा काव्य कर दिया। 
मुझे दंड से नतमस्तक कर,
वो समझे आराध्य कर दिया।"

......चेतन रामकिशन "देव"…..
दिनांक--०८.०२ .१५



Monday 2 February 2015

♥♥तरक्की...♥♥


♥♥♥♥♥♥तरक्की...♥♥♥♥♥♥♥
वो जो धरती में सोना भर रहा है। 
सफर दुश्वारियों का कर रहा है। 

करोड़ों पेट हर दिन भरने वाला,
उधारी की वजह से मर रहा है। 

परोसा जा रहा नीला नशा और,
कहें भारत तरक्की कर रहा है।

नहीं है नौकरी तो नौजवां भी, 
तड़पती जिंदगी से डर रहा है। 

जिधर देखो गरीबी का अँधेरा,
कहाँ सूरज उजाला कर रहा है। 

सियासत में नहीं मुद्दे भले के,
हर एक नेता ही टुकड़े कर रहा है। 

कहें क्या "देव", है कानून अँधा,
सज़ा बिन जुर्म के ही, कर रहा है। "

......चेतन रामकिशन "देव"…...
दिनांक--०३.०२ .१५

Sunday 1 February 2015

♥♥सिसकते लफ्ज़...♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥सिसकते लफ्ज़...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
सिसकते लफ्ज़ हैं, इनको जरा आराम करने दूँ। 
ख़ुशी झूठी सही पर आज, इनके नाम करने दूँ। 

इन्हें भी हक़ है हंसने का, मैं इनकी खोलकर बेड़ी,
उभरकर खिलखिलाने का, जरा सा काम करने दूँ। 

पसीना इनके माथे पर, छलक आया था मेरे संग,
भरे जो अश्क़ हैं इनमें, उन्हें नीलाम करने दूँ। 

गगन में दूर तक उड़ना, है इनके दिल की ख्वाहिश में,
उजाला धूप से लेकर, मचलती शाम करने दूँ। 

न सोचा "देव" इनका हक़, नहीं जानी कोई हसरत,
इन्हें भी प्यार में खुद को, जरा गुलफाम करने दूँ।  "

................चेतन रामकिशन "देव"….............
दिनांक--२८.०१.१५

♥♥दोषारोपण...♥♥


♥♥♥♥♥दोषारोपण...♥♥♥♥♥♥
दोषारोपण भला किसलिये। 
ये आरोपण भला किसलिये। 
प्रेम किया, अपराध नहीं फिर,
मेरा शोषण भला किसलिये। 

क्यों पीड़ा का अम्ल डालकर,
मेरा मन घायल करते हो। 
क्यों मेरे कोमल भावों के,
साथ में ऐसा छल करते हो। 
मैं भी मानव हूँ तुम जैसा,
शिलाखंड, पाषाण नहीं हूँ,
क्यों मेरे नयनों में निशदिन,
अश्रु का ये जल भरते हो। 

सच्चाई के साथ रहो तुम,
मिथ्या पोषण भला किसलिये। 
प्रेम किया, अपराध नहीं फिर,
मेरा शोषण भला किसलिये... 

जीवन भर की सौगंधे थीं,
तुम क्षण भर में बदल गये हो। 
मुझको एकाकीपन देकर,
दूर बहुत तुम निकल गये हो। 
"देव" कहाँ है वो अपनापन,
बात बात पे जो कहते थे,
आज परायापन दिखलाकर,
मेरे मन को कुचल गये हो। 

तीर चुभाकर मेरे रक्त का,
ये अवशोषण भला किसलिये। 
प्रेम किया, अपराध नहीं फिर,
मेरा शोषण भला किसलिये। "

......चेतन रामकिशन "देव"…..
दिनांक--०१.०२ .१५