Saturday, 28 February 2015

♥♥♥मिटटी की देह...♥♥♥



♥♥♥♥♥♥♥♥♥मिटटी की देह...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
शांत है अब देह मानो, कोई स्पंदन नहीं है। 
देह मिटटी की हुयी है, अब गति का तन नहीं है। 
एक ही क्षण में मिली, परमात्मा से आत्मा,
शव जलाने चल पड़े सब, शेष अब जीवन नहीं है। 

है नियम जाने का तो फिर, वेदना इतनी क्यों होती। 
क्यों किसी को याद करके, आँख ये दिन रात रोती। 

मैं जो पूछूं तो कहें सब, ये सही प्रश्न नहीं है। 
शांत है अब देह मानो, कोई स्पंदन नहीं है... 

कल तलक आँगन में अपने, स्वर हमारे बोलते थे। 
प्राण वायु मिल रही थी, हम जो द्वारा खोलते थे। 
"देव" पर झपकी पलक तो, थम गये हैं दृश्य सारे,
दूर होना चाहते सब, साथ में जो डोलते थे। 

खुद को अब खुद ही की बातें, क्यों पराई लग रहीं हैं।  
लौटकर आये न बेशक, आँख कितनी जग रही है। 

जिंदगी मिलती नहीं फिर, उसके ऊपर धन नही है। 
शांत है अब देह मानो, कोई स्पंदन नहीं है। "

................चेतन रामकिशन "देव"................
दिनांक-२८.०२.२०१५

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