Thursday 2 April 2015

♥♥♥धूम्रदण्डिका...♥♥♥

♥♥♥♥♥♥♥♥♥धूम्रदण्डिका...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
धूम्रदण्डिका के धुयें में, निहित तुम्हारी आकृति है। 
मदिरा के प्यालों से फूटे, अब तेरी ही आवृति है। 
एक दिन था जब नशा सोचकर, मुझको घबराहट होती थी,
पर इतना बदलाव हुआ अब, नशा ही मेरी प्रवृति है। 

हाँ सच है के नशा है घातक, मुझे रोग से भर देता है। 
लेकिन ये भी सच है तेरी, याद को कमतर कर देता है। 
मैंने तो अच्छाई के संग, बहुत आगमन माँगा तुमसे,
किन्तु हर क्षण अनदेखा भी, अमृत को विष कर देता है। 

क्षुब्ध हूँ लेकिन ये धुआं ही, मेरी सारी प्रकृति है। 
धूम्रदण्डिका के धुयें में, निहित तुम्हारी आकृति है... 

दोष नहीं है तुम पर लेकिन, एकाकीपन सौंपा तुमने। 
अनदेखी से मेरे मन में, बीज शूल का रोंपा तुमने। 
"देव" मुझे भी आदर्शों पर, चलना मनमोहक लगता था,
किन्तु मेरे कोमल मन पर, तीर जहर का घोंपा तुमने। 

दंड के क्षण मैं भूल सकूँ न, बड़ी तीव्र ये स्मृति है। 
धूम्रदण्डिका के धुयें में, निहित तुम्हारी आकृति है। "


नोट-मेरी ये रचना किसी को नशे के लिये आमंत्रित नहीं करती है, रचनाकार का भाव मन व्यापक होता है और वह समाज के जिस पहलु को छूता है, उस पर शब्द जोड़ता है। 

..................चेतन रामकिशन "देव"…................
दिनांक-०३.०४.२०१५