Sunday 6 May 2018

♥♥अपवित्र ...♥♥



♥♥अपवित्र  ...♥♥
अपवित्र हूँ।
मैं विचित्र हूँ।
कोई भयावह,
रौद्र चित्र हूँ।
मैं संभवत:
रक्तपिपासु,
मैं शत्रु का,
घना मित्र हूँ।


जब अपना कहने वालों से, ही ऐसी उपमा मिलती हैं।
तो हृदय की कंदराओं में, मानों के चिमनी जलती हैं।
आरोपित करने वाले तो, निरा रक्त को जल कह देंगे,
उनके सम्मुख किसी मनुज की, सच्ची बातें कब चलती हैं।


मैं हूँ अम्ल,
रसायन कोई,
कहाँ भला,
मैं कोई इत्र हूँ।
मैं संभवत:
रक्तपिपासु,
मैं शत्रु का,
घना मित्र हूँ।


बुरे समय में परिचय वाले, भी अपरिचित हो जाते हैं।
साथ छोड़ने के अवसर में, तत्क्षण विचलित हो जाते हैं।
ये ऐसा संसार है जिसमें, भावों का संदर्भ कुछ नहीं,
जीवित सृजन और सजीव भी, मानों कल्पित हो जाते हैं।

वो स्वयं को,
सर्वोच्च मानते।
मैं छोटा सा,
मानचित्र हूँ।
मैं संभवत:
रक्तपिपासु,
मैं शत्रु का,
घना मित्र हूँ। "


चेतन रामकिशन "देव"
०६.०५.२०१८
(सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरी ये रचना मेरे ब्लॉग पर पूर्व प्रकाशित। "