♥♥♥♥♥♥♥वियोग(वेदना की यात्रा).♥♥♥♥♥♥♥♥♥
प्रीत का धागा टूट गया और मन को मिला वियोग!
छोड़ गए हैं मुझको अपना कहने वाले लोग!
जीवन पथ में भी चुभते हैं, अब पीड़ा के शूल,
हँसते गाते इस जीवन को, लगा दुखों का रोग!
न जाने क्यूँ बन जाते हैं, लोग यहाँ पाषाण!
उनको क्या निकलें तो निकलें भले किसी के प्राण!
सोचा न था भावनाओं का, होगा यूँ प्रयोग!
प्रीत का धागा टूट गया और मन को मिला वियोग...
हुआ है मन के रिश्ते का भी क्षण भर में अवसान!
मेरे दुखों का, मेरे घाव का, नहीं है उनको ध्यान!
मेरे रोते नयनों से भी, नहीं है उनको नेह,
इस पीड़ा से जीवन पथ में, हुआ बड़ा व्यवधान!
मेरी याचना की भी रखी, नहीं उन्होंने लाज!
नहीं पसीजे सुनकर मेरी रुंधी हुयी आवाज!
अपनों ने बस छला है मुझको, किया है बस उपयोग!
प्रीत का धागा टूट गया और मन को मिला वियोग...
ऐसे लोग नहीं अपने जो, नहीं समझते पीर!
ऐसे लोग तो भेद रहे, बस ह्रदय और शरीर!
"देव" नहीं पीड़ा तक में, वो करते हैं स्नेह,
मुखमंडल से स्फुट करते, वो जहरीले तीर!
मेरे नयनों के अश्रु से, भीग गया आकाश!
न ही मन में हर्ष है कोई, न कोई उल्लास!
औरों को दुख देकर कैसे, हर्षित रहते लोग!
प्रीत का धागा टूट गया और मन को मिला वियोग!"
"
वियोग- के कारण किसी का जीवन, पीड़ा और वेदना के अति निकट पहुँच जाता है और उस व्यक्ति के जीवन से हर्ष और उल्लास के रंग लुप्त हो जाते हैं, वो व्यक्ति हंसने की चेष्टा भी करे, तो भी उसके नयन सजल हो जाते हैं, तो आइये किसी को वियोग और वेदना देने से पहले मंथन करें!"
चेतन रामकिशन "देव"
दिनांक-१५.१०.२०१२
सर्वाधिकार सुरक्षित!
ये रचना मेरे ब्लॉग पर पूर्व प्रकाशित!