Monday 21 January 2019

♥♥♥♥♥अपने औचित्य... ♥♥♥♥♥♥


♥♥♥♥♥अपने औचित्य... ♥♥♥♥♥♥
नहीं दिया संवाद का अवसर, तुम संवेदनहीन हो गए।
 केवल अपने औचित्यों में, तुम कितने तल्लीन हो गए।
प्रेम शब्द के अर्थ को तुमने,  कटुता से खंडित कर डाला,
और हम थे के मानो तुम बिन, जैसे जल बिन मीन हो गए।

नेह विषय है अनुभूति का, भाव नहीं मैं थोप रहा  हूँ। 
किन्तु मैत्री पक्ष दिखाकर, नहीं वाण भी घोंप  रहा हूँ।

वृद्धि में हैं झूठ के कंटक,  चंहुओर आसीन हो गए।
और हम थे के मानो तुम बिन, जैसे जल बिन मीन हो गए....

हूँ कितना स्तब्ध मैं देखो, लिख नहीं सकता, कह नहीं सकता।
किन्तु प्रेम की कोमलता पे, निर्मंमता मैं सह नहीं सकता।
भावनाओं के नाम पे छल कर, स्वयं का हित तो न्याय नहीं है,
मेरा मन रेशम सा है मैं, पत्थर बनके रह नहीं सकता।

मुझे पता है फुलवारी को, हर कोई पाला नहीं करता।
शुष्क नहर में, जल की बूंदें, हर कोई डाला नहीं करता।

"देव" हमारे सपने थककर, चिरनिंद्रा में लीन हो गए।
और हम थे के मानो तुम बिन, जैसे जल बिन मीन हो गए। "

चेतन रामकिशन "देव "
दिनांक-२१-०१-२०१९
(सर्वाधिकार सुरक्षित, रचना मेरे ब्लॉग पर पूर्व प्रकशित। "