Wednesday 11 February 2015

♥♥वनवास...♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥वनवास...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
नैन मेरे व्याकुल हैं तुम बिन, और मन में वनवास हुआ है। 
गगन से चंदा लुप्त हो गया, तिमिर भरा आकाश हुआ है। 
मेरी वेदना और दशा को, समझ के पग ले आओ वापस,
भूख प्यास सब भूल गया हूँ, विरह में उपवास हुआ है। 

प्रेम सरल है किन्तु तुमने, क्रोध से इसको कठिन बनाया। 
नहीं सुना मेरे पक्षों को, न ही अपना पक्ष सुनाया। 

हठधर्मी हम हुये थे दोनों, अब जाकर आभास हुआ है। 
नैन मेरे व्याकुल हैं तुम बिन, और मन में वनवास हुआ है... 

बिना तुम्हारे शिला के जैसा, न ही जीवन गतिमान है। 
तुम बिन कितनी वीरानी है, क्या ये तुमको अनुमान है। 
परित्याग करते हैं जैसे, वैसे मुझको छोड़ गयी हो,
तुम बिन जाने कैसा जग है, न ही भू, न आसमान है। 

इतना क्रोध नहीं हितकारी, स्वास्थ्य तुम्हारा गिर जायेगा। 
समय गया तो चला ही जाये, नहीं लौटकर फिर आयेगा। 

जरा बता दो क्या मेरे बिन, रहने का अभ्यास हुआ है। 
नैन मेरे व्याकुल हैं तुम बिन, और मन में वनवास हुआ है...

देखो घर का द्वार न बोले, कोई भी दीवार न बोले। 
अपना क़स्बा भी चुप चुप है, तुम बिन ये संसार न बोले। 
"देव" नहीं कुछ मन को भाये, घुटा घुटा सा दम रहता है,
सूख गया तुलसी का पौधा, पेड़ों का सिंगार न बोले। 

प्राण गये क्या तब आओगी, फिर आकर के क्या पाओगी। 
मुझे पता है, मुझे इस तरह, देख के तुम भी मर जाओगी। 

नहीं बची भावों की क्षमता, अंतिम ये प्रयास हुआ है। 
नैन मेरे व्याकुल हैं तुम बिन, और मन में वनवास हुआ है।"


.....................चेतन रामकिशन "देव"….................
दिनांक-११.०२.२०१५