♥♥♥♥♥♥♥लफ्जों
का
बदन..♥♥♥♥♥♥♥♥
बारूद से लफ्जों का बदन, जलने लगा है!
लगता है रवि प्रेम का, अब ढ़लने लगा है!
एक पल में ही लग जाती हैं, लाशों की कतारें,
फिर रंज का एहसास यहाँ, पलने लगा है!
लगता है बड़ा गहरा है, ये दहशत का दौर है!
जिस ओर भी देखो वहीँ, नफरत का शोर है!
इन्सान ही इन्सान को अब, छलने लगा है!
बारूद से लफ्जों का बदन, जलने लगा है!"
खूंखार जानवर है वो, इन्सान नहीं है!
इंसानियत का जिसको, कोई धयान नहीं है!
दहशत के दीवानों, जरा एक बात तो सुनो,
तुम जिसको मारते हो वो, बेजान नहीं है!
ए "देव" तरस
इनको,
कभी
आता
नहीं
है!
लगता है इन्हें चैन, अमन, भाता नहीं है!
अब कैसा चलन, मौत का ये चलने लगा है!
बारूद से लफ्जों का बदन, जलने लगा है!"
...........चेतन
रामकिशन
"देव"...............
दिनांक-२३.०२.२०१३