Thursday, 25 April 2013

♥♥गम का विलय..♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥गम का विलय..♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
मैं भावों का सागर हूँ, मैं अपना रस्ता तय कर लूँगा!
अपने स्वर में दर्द वसाकर, मैं गीतों में लय कर लूँगा!
मुझे अकेला देख भले ही, मेरे दुश्मन मुस्काते हों,
लेकिन मैं अपने साहस से, अपने हक की जय कर लूँगा!

ये मेरा विश्वास है खुद पर, ये कोई अभिमान नहीं है! 
यूँ ही मैं संघर्ष करूँगा, जब तक तन बेजान नहीं है!

धीरे धीरे खून में अपने, गम का यहाँ विलय कर लूँगा!
मैं भावों का सागर हूँ, मैं अपना रस्ता तय कर लूँगा.....

इस जीवन की राह पे देखो, रोजाना बदलाव हुए हैं!
कभी यहाँ पर आंसू फूटे, कभी यहाँ पर घाव हुए हैं!
"देव" यहाँ पर पत्थर बनकर, अपने दिल को कुचल रहे हैं,
दर्द के झरने उमड़ उमड़ कर, देखो तो सैलाब हुए हैं!

जब अपने ही बदल गए तो, गैरों से क्या गिला करूँगा!
हाँ लेकिन मैं अब लोगों से, सोच समझकर मिला करूँगा!

धीरे धीरे सही राह पर, चलकर यहाँ विजय कर लूँगा!
मैं भावों का सागर हूँ, मैं अपना रस्ता तय कर लूँगा!"

..................चेतन रामकिशन "देव".....................
दिनांक-२६.०४.२०१३




♥♥वक्त का सूरज,..♥♥



♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥वक्त का सूरज,..♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
आज भले ही वक्त का सूरज, मुझको केवल झुलसाता है!
आज भले ही चाँद रात का, विरह भाव में तड़पाता है!
आज भले ये तारे मुझको, चिढ़ा रहे हों मेरी हार पर,
आज भले ही काला बादल, घना अँधेरा कर जाता है!

लेकिन मन में आशाओं के, दीप जलाने मैं निकला हूँ!
गम की भारी चट्टानों को, यहाँ हिलाने मैं निकला हूँ!

वही हारता है जीवन से, जो पीड़ा से डर जाता है!
आज भले ही वक़्त का सूरज, मुझको केवल झुलसाता है...

आज भले ही बुरे वक़्त में, अपनों का रुख बदल गया हो!
आज भले ही बुरे वक्त में, पैर हमारा फिसल गया हो!
"देव" मगर वो पछतायेंगे, एक दिन अपनी मनमानी पर,
आज भले उनका अपनापन, मोम की तरह पिघल गया हो!

रोज दर्द के प्याले पीकर, शक्ति का वर्धन करता हूँ!
उठने की कोशिश रहती है, भले ही मैं कितना गिरता हूँ!

आग को सहते सहते एक दिन, लोहा कुंदन बन जाता है!
आज भले ही वक़्त का सूरज, मुझको केवल झुलसाता है!"

....................चेतन रामकिशन "देव"....................
दिनांक-२५.०४.२०१३


♥♥पत्थर का बुत..♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥पत्थर का बुत..♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
रो रो कर आँखों में लाली, और मेरा मन विचलित होता!
सच की कीमत नहीं है कोई, झूठ यहाँ पर अद्भुत होता!
जिस इन्सां को आह किसी, नहीं सुनाई देती जग में,
बेशक वो दिखता हो मानव, पर वो पत्थर का बुत होता!

लोग यहाँ पर मिन्नत करके, भले तड़प कर मर भी जायें!
लेकिन पत्थर के बुत जैसे, मानव फिर भी जश्न मनायें!

बिन पानी के इस दुनिया में, कहाँ मरुस्थल सुरभित होता!
रो रो कर आँखों में लाली, और मेरा मन विचलित होता.....

इस दुनिया में मानवता का, लगभग सारा पतन हो गया!
बस अपना ही घर भरने का, हर मानव का जतन हो गया!
"देव" ये आलम देखके मेरा, दिल रोता है फूट फूट कर,
बस अपने ही सुख में शामिल, मानव का हर यतन हो गया!

दर्द किसी का समझ सके न, किसी की पीड़ा जान सके न!
वो इन्सां इंसान नहीं है, जो अपनायत मान सके न!

अभिमान ऐसे मानव का, एक दिन किन्तु है मृत होता!
रो रो कर आँखों में लाली, और मेरा मन विचलित होता!"

....................चेतन रामकिशन "देव"....................
दिनांक-२५.०४.२०१३