Thursday 11 July 2013

♥♥♥♥♥♥निर्धन की आह..♥♥♥♥♥♥

♥♥♥♥♥♥निर्धन की आह..♥♥♥♥♥♥
मजदूर पिस रहा है, कृषक भी दुखी है!
कैसे मैं कह दूँ अपना, ये देश सुखी है!

चिथड़ों में लिपटे लिपटे, इंसान हैं यहाँ!
रोटी के बिना लाखों, बेजान हैं यहाँ!
कोई भी दर्द इनका, सुनता ही नहीं है,
सब जानकर भी देखो, अंजान हैं यहाँ!

जर्जर हुए बदन हैं, अस्थि भी दिखी है!
मजदूर पिस रहा है, कृषक भी दुखी है...

इस देश के नेता तो, पथ से भटक गए!
बस लूट मार तक ही, ये तो अटक गए!
दिखने में तो लगते हैं, ये साफ आदमी,
पर ये ही गरीबों का, हर हक़ गटक गए!

निर्धन ने बिना जुर्म के ही, मौत चखी है!
मजदूर पिस रहा है, कृषक भी दुखी है...

मजदूर हो, या कृषक, या आम आदमी!
दिन रात इनकी आँखों में, रहती है नमी!
पर "देव" यूँ ही बैठके, मंजिल के नहीं मिले,
अब रंग दो लुटेरों के, तुम खून से जमीं!

अपने ही होंसले में, ये जीत लिखी है!
मजदूर पिस रहा है, कृषक भी दुखी है!"


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भारत देश, आजादी के बहुत कम वर्षों के बाद भी, आज ऐसे मुकाम पर पहुंच चूका है, जहाँ से विश्व समुदाय उसे भ्रष्टाचार का उपमा देने में जरा भी संकोच नहीं करता, एक ओर निर्धन के घर चूल्हा फूंकने के लिए ४ लकड़ियाँ तक नहीं मिलती ओर एक तरफ लोग, इन्ही के धन, मेहनत ओर अधिकारों पर डाका डालकर, धन कुबेर बने बैठे हैं! तो आइये चिंतन करें..

चेतन रामकिशन "देव"
दिनांक-१३.०७.२०१३