♥♥♥♥♥♥♥♥♥अश्कों की नदियां…♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
अश्कों की नदियां हैं लेकिन, होठ मेरे फिर भी सूखे हैं!
नमी नहीं है भावनाओं में, सब रिश्ते नाते रूखे हैं!
आज प्यार की परिभाषा का, पूरा ढांचा बदल गया है,
रूह की चाहत नहीं रही है, लोग बदन के बस भूखे हैं!
नहीं पता कैसी दुनिया है, अपनायत की चाह नहीं है!
नफरत के कांटे हैं पथ पर, समरसता की राह नहीं है!
भारत उदय हुआ है लेकिन, देश के निर्धन क्यूँ भूखे हैं!
अश्कों की नदियां हैं लेकिन, होठ मेरे फिर भी सूखे हैं!
बोझ समझकर माँ बाबा को, आज उन्हें दुत्कारा जाता!
आज महज दौलत की खातिर, खूँ का रिश्ता भी मिट जाता!
बस अपनी खुशियों की खातिर, भूल गए हम अपनेपन को,
सब चाहते हैं हंसी ठहाके, नहीं किसी के दुःख से नाता!
ये इक्कीसवीं सदी है जिसमें, रिश्ते नाते नाम के होते!
नातेदारी होती उनसे, जो बस अपने काम के होते!
घायल मर जाते सड़कों पर, दया के सब सागर सूखे हैं!
अश्कों की नदियां हैं लेकिन, होठ मेरे फिर भी सूखे हैं!
ऐसा आलम देख कविमन और कलम मुरझा जाते हैं!
भाव दर्द के इनके मन में और कलम में घुल जाते हैं!
"देव" गांव की वो पगडण्डी, मुझे शहर से प्यारी लगती,
जहाँ पेड़ की छाया नीचे, हम कुदरत से मिल जाते हैं!
मगर शहर के के इस धुयें ने, मानवता को मंद कर दिया!
प्यार की सुन्दर किरणों वाले, हर रस्ते को बंद कर दिया!
रोता है ये मेरा मन भी, भाव स्याही के सूखे हैं!
अश्कों की नदियां हैं लेकिन, होठ मेरे फिर भी सूखे हैं!"
................चेतन रामकिशन "देव"…...............
दिनांक- ३०.०३.२०१४
अश्कों की नदियां हैं लेकिन, होठ मेरे फिर भी सूखे हैं!
नमी नहीं है भावनाओं में, सब रिश्ते नाते रूखे हैं!
आज प्यार की परिभाषा का, पूरा ढांचा बदल गया है,
रूह की चाहत नहीं रही है, लोग बदन के बस भूखे हैं!
नहीं पता कैसी दुनिया है, अपनायत की चाह नहीं है!
नफरत के कांटे हैं पथ पर, समरसता की राह नहीं है!
भारत उदय हुआ है लेकिन, देश के निर्धन क्यूँ भूखे हैं!
अश्कों की नदियां हैं लेकिन, होठ मेरे फिर भी सूखे हैं!
बोझ समझकर माँ बाबा को, आज उन्हें दुत्कारा जाता!
आज महज दौलत की खातिर, खूँ का रिश्ता भी मिट जाता!
बस अपनी खुशियों की खातिर, भूल गए हम अपनेपन को,
सब चाहते हैं हंसी ठहाके, नहीं किसी के दुःख से नाता!
ये इक्कीसवीं सदी है जिसमें, रिश्ते नाते नाम के होते!
नातेदारी होती उनसे, जो बस अपने काम के होते!
घायल मर जाते सड़कों पर, दया के सब सागर सूखे हैं!
अश्कों की नदियां हैं लेकिन, होठ मेरे फिर भी सूखे हैं!
ऐसा आलम देख कविमन और कलम मुरझा जाते हैं!
भाव दर्द के इनके मन में और कलम में घुल जाते हैं!
"देव" गांव की वो पगडण्डी, मुझे शहर से प्यारी लगती,
जहाँ पेड़ की छाया नीचे, हम कुदरत से मिल जाते हैं!
मगर शहर के के इस धुयें ने, मानवता को मंद कर दिया!
प्यार की सुन्दर किरणों वाले, हर रस्ते को बंद कर दिया!
रोता है ये मेरा मन भी, भाव स्याही के सूखे हैं!
अश्कों की नदियां हैं लेकिन, होठ मेरे फिर भी सूखे हैं!"
................चेतन रामकिशन "देव"…...............
दिनांक- ३०.०३.२०१४