♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥जुगनू..♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
रात भर जुगनू की तरह, मैं जला करता हूँ!
अपनी तकदीर से न फिर भी गिला करता हूँ!
दर्द की आग में तपकर, ये हुनर पाया है,
फूल बनकर के मरुस्थल में, खिला करता हूँ!
है बुरा वक़्त के अपने न बदल जायें कहीं,
अपनी पहचान छुपाकर के, मिला करता हूँ!
तेरी रंजिश से कभी दिल के हुए जो टुकड़े,
आज उन टुकड़ों को, मैं फिर से सिला करता हूँ!
बड़ी मायूसी है पर "देव" नहीं हारा मैं,
वक़्त के साथ मैं, हंसकर के चला करता हूँ!"
..........चेतन रामकिशन "देव"............
दिनांक-२६.०१.२०१३