Saturday 18 April 2015

♥♥♥पत्र तुम्हारे...♥♥♥

♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥पत्र तुम्हारे...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
यदा कदा मैं पत्र तुम्हारे, जिस दिन भी खोला करता हूँ। 
तुम तो निकट नही होती हो, शब्दों से बोला करता हूँ। 
साथ जनम तक संग साथ की, जब पढता सौगंध तुम्हारी,
यही सोचकर के तुम आओ, द्वार पुन : खोला करता हूँ। 

जाने कितनी बार हजारों, यूँ ही तेरा पथ देखा है। 
आँख लगी तो मैंने तेरा, स्वर्ण सजीला रथ देखा है। 

तुम्हे देखकर स्वप्नों में भी, हर्षित हो, डौला करता हूँ। 
यही सोचकर के तुम आओ, द्वार पुन : खोला करता हूँ ... 

जब भी एकाकीपन होता, पूर्ण मनन पे तुम छाती हो। 
अपने नैना बंद करूँ तो, नज़र मुझे बस तुम आती हो। 
तेरी कविता का वो गायन, कान में अब भी मधु घोलता,
मुझे देखकर के परिसर में, मंद मंद तुम मुस्काती हो। 

अपने मन की परत परत पर, छवि तुम्हारी ही पाई है। 
याद मुझे आता है तेरा, संग संग होना सुखदायी है। 

तुमसे ज्यों का त्यों कह दूँ मैं, नहीं तनिक तौला करता हूँ। 
यही सोचकर के तुम आओ, द्वार पुन : खोला करता हूँ ...

पढ़ते पढ़ते पत्र की अंतिम, पंक्ति तक नैना जाते हैं।  
रिक्त अभी तक द्वार देखकर, फूल भी सारे मुरझाते हैं।  
"देव" निगाह जाती है मेरी, टंगी तुम्हारी तस्वीरों पर,
तब होता एहसास मुझे के, जाने वाले कब आते हैं। 

तब मैं फिर से नम आँखों से, पत्र तुम्हारा रख देता हूँ। 
यही सोचकर तेरे हाथ का, भोजन है मैं चख लेता हूँ। 

कार्यालय में जाने को मैं, इस्त्री फिर चोला करता हूँ।  
यही सोचकर के तुम आओ, द्वार पुन : खोला करता हूँ। "

...................चेतन रामकिशन "देव"………………..
दिनांक-१८.०४.२०१५ (CR सुरक्षित )