♥♥♥सस्ती मौत..♥♥♥♥
अंधकार गहराया सा है!
दुख का गहरा साया सा है!
मौत हो गई कितनी सस्ती,
खौफ जहन पर छाया सा है!
शायद हम सब खुश हैं देखो,
कंक्रीट के इस जंगल में!
लोग यहाँ पर अपनेपन को,
कुचल रहे देखो दंगल में!
नया दौर क्या इसीलिए है,
मानवता का अंत करें हम,
हम औरों को पीड़ा देकर,
सदा रहें अपने मंगल में!
मानवता के ऊपर देखो,
अब खतरा मंडराया सा है!
मौत हो गई कितनी सस्ती,
खौफ जहन पर छाया सा है...
अपनी वहशत में हम देखो,
मानवता को कुचल रहे हैं!
हाड़ मांस के दिल न पिघलें,
बेशक पत्थर पिघल रहे हैं!
"देव" आज के दौर से अच्छा,
गुजरा आलम ही बेहतर था,
आज लोग बस अपने सुख में,
लाचारों को मसल रहे हैं!
पढ़े लिखे भी होकर भी हमने,
खुद को पशु बनाया सा है!
मौत हो गई कितनी सस्ती,
खौफ जहन पर छाया सा है!"
..चेतन रामकिशन "देव"...
दिनांक-०९.०५.२०१३