Monday 8 June 2015

♥♥उपचार…♥♥

♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥उपचार…♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
मेरे भाव को रुग्ण कहा तो, कोई क्यों उपचार दिया न। 
मैं भी मानव था तुम जैसा, क्यों मेरा सत्कार किया न। 
क्या बस खुद पीड़ा व्यापक, और मेरा दुख अर्थहीन है,
तो फिर था मैं नाम का साथी, तुमने मुझको प्यार किया न। 

प्रेम के पथ पर चलने वाले, अलग अलग से कब होते हैं। 
घाव भले हो एक पक्ष को, मगर परस्पर मन रोते हैं। 
अर्थ प्रेम का होता जग में, त्याग के मैं को हम बन जाना,
नयन चार और दो मुखमंडल, पर सपने एकल होते हैं। 

पाषाणों का शिल्प किया पर, क्यों मेरा श्रृंगार किया न। 
मेरे भाव को रुग्ण कहा तो, कोई क्यों उपचार दिया न ... 

मेरे तन की त्वचा को मिटटी, और खुद को मलमल कहते हो। 
जरा बताओ किस दृष्टि से, समरसता में तुम रहते हो। 
"देव" मुखों पर श्वेत रंग को, मलकर चाँद बना न जाये,
मंच पे आकर सच का अभिनय, और पीछे मिथ्या कहते हो। 

दो तन थे, यदि एक प्राण हम, क्यों संग में विषधार पिया न। 
मेरे भाव को रुग्ण कहा तो, कोई क्यों उपचार दिया न। "

....................चेतन रामकिशन "देव"……................
दिनांक-०९.०६.२०१५
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