Thursday, 6 November 2014

♥♥दिल के जज़्बात...♥


♥♥♥♥♥दिल के जज़्बात...♥♥♥♥♥
दिल के जज़्बात फिर जले क्यों हैं। 
हम सही होके भी छले क्यों हैं। 

वो तो कहते थे, प्यार मुझसे हुआ,
अजनबी बनके वो मिले क्यों हैं। 

मैं हूँ पत्थर सड़क का, चाँद हो तुम,
ख्वाब मिलने के फिर पले क्यों हैं। 

आदमी तुम हो, आदमी वो भी,
तीर, तलवार ये चले क्यों हैं। 

जिनसे जज्बात हैं उन्हें सौंपो,
होठ चुप होके, अब सिले क्यों हैं। 

पर्चियां तक तो हैं, किताबों में,
मेरे ख़त पांव के, तले क्यों हैं। 

"देव " रिश्तों का क़त्ल करके भी,
 सबकी नज़रों में वो भले क्यों हैं। "

.......चेतन रामकिशन "देव"………
दिनांक-०७ .११.२०१४