Thursday, 21 January 2016

♥ निष्कासन का दंड...♥

♥♥♥♥♥♥♥♥ निष्कासन का दंड...♥♥♥♥♥♥♥♥♥
विवश हुआ स्वयं की हत्या को, देश का जो की कर्णधार था। 
दोष रख दिया उसके सर जो, किंचित भी न दागदार था। 
जिसने अपने अधिकारों को, मित्रों के संग पाना चाहा,
दंड दिया था निष्कासन का, जबकि वो न गुनहगार था। 

हाँ सच है कि स्वयं की हत्या, कायरता कहलाती होगी। 
जिसको अनुचित दंड मिला पर, उसे नींद कब आती होगी। 
क्या उत्पीड़न इसी वजह से, दलित वर्ग में जो जन्मा था,
भेदभाव शिक्षा मंदिर में, आग धधक सी जाती होगी। 

तार हुआ उस माँ का आँचल, तीर के जैसे आरपार था। 
दंड दिया था निष्कासन का, जबकि वो न गुनहगार था....

कभी नहीं हो पुनरावृत्ति, पराकाष्ठा है ये दुःख की। 
नहीं विवश हो बिना जुर्म के, बुझे न कोई आभा मुख की। 
"देव " नहीं वो शिक्षा मंदिर, जहाँ पे ऐसा बंटवारा हो,
यदि रहा ऐसा तो रण हो, नहीं कल्पना होगी सुख की। 

लटके वो कंधे फांसी पे, जिनपे दुःख का बड़ा भार था। 
दंड दिया था निष्कासन का, जबकि वो न गुनहगार था। "


........चेतन रामकिशन "देव"…… 
दिनांक-२१.०१.२०१६ 
" सर्वाधिकार C/R सुरक्षित। "