Friday, 27 February 2015

♥♥♥शूल की उपमा...♥♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥शूल की उपमा...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
शूल की उपमा मिली तो, रक्त घावों से बहा है। 
है समय विपरीत तो सारा जहाँ ये हंस रहा है। 
क्या हमारी हस्त रेखा, टूटकर ठहरी है पथ में,
या शिखर इंसानियत का, अब जमीं में धंस रहा है। 

प्रेम के पौधे कटे हैं, पेड़ विष के उग रहे हैं। 
आज शत्रु आदमी के, आदमी ही लग रहे हैं। 
वेदना देकर भी उनको, बोझ न कोई मनों पर, 
हम भले काँटों की शैया, पे गुजारा कर रहे हैं। 

बेगुनाहों के गले पर, फंदा अब तो कस रहा है।  
शूल की उपमा मिली तो, रक्त घावों से बहा है ... 

रात जगमग उनके घर में, हम तिमिर को पी रहे हैं। 
लोग पर अपराध करके, भी अहम में जी रहे हैं। 
"देव" मन की घास रौंदी, चीख निकली भावना की,
हैं दवायें महंगी त्यों ही, घाव हम खुद सी रहे हैं। 

छटपटाया भोला पंछी, जल में जो फंस रहा है। 
शूल की उपमा मिली तो, रक्त घावों से बहा है। "

...............चेतन रामकिशन "देव"................
दिनांक-२८.०२.२०१५