♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥विरह का वनवास..♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
बड़ा ही पीड़ित करता मन को, विरह का ये वनवास!
नहीं पता कब पूरी होगी, सखी मिलन की आस!
गिन गिन कर मैं बिता रहा हूँ, अपने दिन और रात,
नहीं पता तुम कब आओगी, सखी हमारे पास!
बिना तुम्हारे नीरसता है, मन भी हुआ अधीर!
बिना तुम्हारे इन आँखों से, झर झर बहता नीर!
नहीं पता कब उज्जवल होगा, ये मन का आकाश!
बड़ा ही पीड़ित करता मन को, विरह का ये वनवास..
मैंने देखा विरह में होती, गति समय की मंद!
न भाती है शीतल वायु, न मिलता आनंद!
बिना तुम्हारे "देव" हुए हैं, शब्द हमारे मौन,
नहीं रचित होती है कविता, न बनता है छंद!
तुम बिन उपवन मुरझाया है, सूख गए सब फूल!
बिना तुम्हारे जीवन पथ पर, मुझको चुभते शूल!
नहीं पता कब पतझड़ हरने, आएगा मधुमास!
बड़ा ही पीड़ित करता मन को, विरह का ये वनवास!"
..........चेतन रामकिशन "देव"...........
दिनांक-२०.०२.२०१३