Wednesday 9 May 2018

♥♥अश्रु संचय...♥♥



♥♥अश्रु संचय...♥♥
व्यक्त करूँ क्या मन की भाषा,
क्या बतलाऊँ मौन ह्रदय का।
बड़ा संकुचित क्षेत्र हो गया,
मानवता और प्रेम विषय का।
जिसको देखो वो घृणा की,
घूम रहा चिंगारी लेकर,
और आत्मा को दुःख देता
ये अवलोकन दुरित समय का। 

क्या लिखूं मैं वर्तमान को, कुछ भी शोध नहीं हो पाता। 
लोगों के दोहरे चेहरों से, सच का बोध नहीं हो पाता। 
जिनके मन में भरी हुयी हैं, विस्फोटक जैसी सामग्री,
मुझसे उनसे अपनापन का अब, अनुरोध नहीं हो पाता। 

मानव, मानव का हत्यारा,
दृश्य बहुत ही है विस्मय का।  
व्यक्त करूँ क्या मन की भाषा,
क्या बतलाऊँ मौन ह्रदय का.....

उन के मन में मेल नहीं है, ये मंतव्य समझ आया है। 
मौन ही अब होकर रह लेंगे, ये गंतव्य समझ आया है। 
जिनके सम्मुख प्राण तत्व भी, हमने रखकर किया निवेदन,
उनको न मेरा उद्बोधन, न वक्तव्य समझ आया है। 

"
देव" सुनो ये पात्र भर गया,
मेरे तो अश्रु संचय का। 
व्यक्त करूँ क्या मन की भाषा,
क्या बतलाऊँ मौन ह्रदय का। "

चेतन रामकिशन " देव"
०९.०५.२०१८ 
(सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरी यह रचना मेरे ब्लॉग http://chetankavi.blogspot.com पर पूर्व प्रकाशित। )