Tuesday, 22 November 2016

♥♥♥♥तुम नदी हो....♥♥♥♥




♥♥♥♥तुम नदी हो....♥♥♥♥
तुम नदी हो कोई मधुर जल की। 
तुम हो श्रृंगारिका सुनो थल की। 
मेरे जीवन का वर्तमान हो तुम,
तुम ही आधार हो मेरे कल की। 

मेरे जीवन का हर्ष तुमसे है। 
ये दिवस, माह, वर्ष तुमसे है। 
तुम नहीं हो तो मैं भी शेष नहीं,
मेरे नयनों का कर्ष* तुमसे है। 

तुमसे पुलकित हुआ मन मेरा,
तुम ही प्रतीक हो मेरे बल की।   

तुम नदी हो कोई मधुर जल की....

तुम से संयुक्त होके रह जाऊं। 
तेरी पीड़ा को स्वयं ही सह जाऊं। 
तेरी वाणी का शब्द बनकर के,
प्रेम के काव्य, छंद कह जाऊं। 

सर्वहित का विचार रखती हो,
तुम न दुर्भावना किसी छल की। 

तुम नदी हो कोई मधुर जल की....

मेरे साकार स्वप्न का दर्शन । 
तुम पे ये प्राण भी करूँ अर्पण।
"देव " तुम अर्थ हो समर्पण का,
तुम बिना रिक्त है मेरा जीवन। 

मेरे उल्लास का शिखर तुमसे,
और दृढ़ता हो तुम मेरे तल की। 

तुम नदी हो कोई मधुर जल की...."


(कर्ष*-आकर्षण )

"
प्रेम, एक ऐसा शब्द जिसमें समूची शान्ति, अपनत्व और कल्याण छिपा है,
प्रेम केवल युगलों का ही सूचक नहीं, अपितु समूचे जनमानस की कोमल भावना का सूचक है, तो आइये प्रेम को अपनत्व के प्रत्येक संदर्भ में स्वीकार करें........ चेतन रामकिशन "देव"

दिनांक- २३.११.२०१६
(मेरी यह रचना मेरे ब्लॉग पर पूर्व प्रकाशित, सर्वाधिकार सुरक्षित )