Friday, 23 May 2014

♥♥पीड़ा की ज्वाला...♥♥

♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥पीड़ा की ज्वाला...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
मेरे जीवित तन को फूंका, कुछ अपनों ने ज्वाला बनकर!
मेरे कंठ को गला दिया है, जहर भरा एक प्याला बनकर!
नहीं पता मेरी हत्या कर, आखिर वो कैसे जीते हैं,
मेरी देह को किया है घायल, काँटों की एक माला बनकर!

है संवेदनहीन जहाँ ये, दिल को छलनी कर देता है!
अपने हित में किसी का आँचल, दर्द दुखों से भर देता है!

अंग अंग को सुन्न कर दिया, विषधर का एक छाला बनकर! 
मेरे जीवित तन को फूंका, कुछ अपनों ने ज्वाला बनकर...

अपनायत की बात करें पर, चुपके से जड़ काट रहें हैं!
प्यार भरे खिलते उपवन को, वो नफरत से पाट रहे हैं!
"देव" बड़ी आशायें लेकर, मैंने जिनको अपना माना, 
लोग वही शत्रु की तरह, नाम हमारा छांट रहे हैं! 

घाव हैं गहरे, खून रिसा है, पीड़ा का व्यापक स्तर है! 
तेज़ाबों का बादल ऊपर, नीचे शूलों का बिस्तर है!

जीवन मेरा हुआ है खंडहर, दुख लिपटा है जाला बनकर!
मेरे जीवित तन को फूंका, कुछ अपनों ने ज्वाला बनकर!"

.................चेतन रामकिशन "देव"….....................
दिनांक- २४.०५.२०१४