Tuesday 18 December 2018

♥चुप जाना बाकी था... ♥

♥♥♥♥♥चुप जाना बाकी था... ♥♥♥♥♥♥
क्या कुछ बचा रहा कहने को, क्या कुछ बतलाना बाकी था।  
सब कुछ तुमने भुला ही डाला, फिर क्या झुठलाना बाकी था। 

मेरे आंसू, और मायूसी, रुँधा गला और बिखरे सपने,
बतलाओ अब कौनसा चेहरा, हमको दिखलाना बाकी था।

वो सौदेबाज़ी में माहिर, ख्वाहिश है के जहां ख़रीदे,
पर हम सी सच्ची रूहों का, सौदा कर पाना बाकी था। 

कितनी मिन्नत करते आखिर, रुकना तो था कहीं पे आकर,
आगे बढ़ते तो नज़रों से, खुद की गिर जाना बाकी था। 

"देव " तुम्हारी शर्त भी कैसी, वफ़ा, प्यार और यकीं से ऊपर,
ऐसे में कहने से बेहतर, हमको चुप जाना बाकी था।  "

चेतन रामकिशन "देव"
१८.१२.२०१८
(मेरी ये रचना, मेरे ब्लॉग पर पूर्व प्रकाशित ) "








  

Saturday 3 November 2018

♥प्रतीक्षा( गहरी व्याकुलता...) ♥


♥♥♥♥♥प्रतीक्षा( गहरी व्याकुलता...) ♥♥♥♥♥♥

प्रतीक्षा, गहरी व्याकुलता, रिक्त धैर्य का कोष हुआ है।
बिना भेंट के सखी हमारे मन में गहरा रोष हुआ है।
मुझको दर्शन की अभिलाषा थी, तुमसे साक्षात रूप में,
छवि तुम्हारी देख देख कर, कतिपय न संतोष हुआ है।

हो जाते हैं धवल वो क्षण जब, सखी परस्पर हम मिलते हैं।
जीवन पथ पर रंग बिरंगे, फूलों के उपवन खिलते हैं।

वचन बांधकर भी न आना, बोलो किसका दोष हुआ है।
प्रतीक्षा, गहरी व्याकुलता, रिक्त धैर्य का कोष हुआ है....

सर्वविदित है प्रेम में देखो, मिलन के अवसर कम होते हैं।
क्यूंकि घर के हर क्षण पहरे, कहाँ दुर्ग से कम होते हैं।
"देव " कहो अवसर खोने से, कोमल मन को क्यों न दुःख हो,
एक बार जो चले गए क्षण, पुन कहाँ उदगम होते हैं।

सखी सुनो मैं रुष्ट हूँ तुमने, क्यूंकि असंतोष हुआ है।
प्रतीक्षा, गहरी व्याकुलता, रिक्त धैर्य का कोष हुआ है। "


चेतन रामकिशन 'देव '

दिनांक- ०३.११.२०१८

(सर्वाधिक सुरक्षित, मेरे द्वारा लिखित ये रचना मेरे ब्लॉग पर पूर्व प्रकाशित )



Monday 30 July 2018

♥♥♥♥♥तुम संग...♥♥♥♥♥♥

 ♥♥♥♥♥तुम संग...♥♥♥♥♥♥

सावन की वर्षा में तुम संग, शीतल बूंदों का लेपन हो। 
नभ अम्बर के पृष्ठ भाग पर, सात वर्ण का विक्षेपन हो। 
हरयाली का हरा आवरण, और फूलों का हो अभिनन्दन,
तुम बन जाओ छवि तुम्हारी, मेरा मुख तेरा दर्पन हो। 

मिलन, भेंट और सखी निकटता, तुम ऊर्जा का संचारण हो।  
प्रेम है तुममें सुनो धरा सा, तुम भावों का भण्डारण हो। 

तुम्हीं मेरे रंग रूप की धवला, और तुम ही मेरा यौवन हो। 
सावन की वर्षा में तुम संग, शीतल बूंदों का लेपन हो। 

मिलन हुआ दो आत्माओं का, दोनों का मन एक हो गया। 
द्वेष, क्षोभ न रहा किसी से, हृदय धवल और नेक हो गया। 
मधुर तरंगे फूट रहीं हैं, सावन की इन मल्हारों में,
इस अमृत वर्षा में अपनी, निष्ठा का अभिषेक हो गया। 

सखी मिलन के अनुपम क्षण हैं, देखो सार नहीं कम करना। 
है हमपे दायित्व प्रेम का, उसका भार नहीं काम करना। 

तुम सौंदर्य मेरी कविता का, और तुम मेरा सम्बोधन हो। 
सावन की वर्षा में तुम संग, शीतल बूंदों का लेपन हो। 

अभिलाषा, मन की जिज्ञासा, भाषा और विश्वास लिखा है।  
सखी तुम्ही को मैंने धरती और अपना आकाश लिखा है। 
तुम्हीं "देव " की श्रद्धा में हो, और तुम्हीं जगमग ज्योति में,
तुम्हें तिमिर को हरने वाला, चंदा का प्रकाश लिखा है। 

नहीं रिक्त हो कोष प्रेम का, सबसे ये अनुरोध करेंगे। 
नेह के पथ पर चलने वाले, न हिंसा अवरोध करेंगे। 

तुम ही मेरी दृढ़ता में हो, और तुम मेरा संवेदन हो।  
सावन की वर्षा में तुम संग, शीतल बूंदों का लेपन हो। "


"
प्रेम, एक ऐसा शब्द, जो विभिन्न सार्थक अर्थों में, हमारे और अपनों में मध्य प्राण तत्वों की तरह प्रवाहित होता रहता है, वह कभी प्रेयसी, कभी परिजनों, कभी सखा किसी भी रूप में अलंकृत होता है, तो आइये प्रेम करें।

चेतन रामकिशन 'देव '
दिनांक- ३०.०७.२०१८ 
(सर्वाधिक सुरक्षित, मेरे द्वारा लिखित ये रचना मेरे ब्लॉग पर पूर्व प्रकाशित )

Friday 22 June 2018

♥♥♥♥♥झूठ...♥♥♥♥♥♥

♥♥♥♥♥झूठ...♥♥♥♥♥♥

फिर से लिबास अपना बदलने लगा है सच।
अब झूठ की तपिश में जलने लगा है सच।

रिश्ते भी शर्मसार हैं, नाते भी रो रहे,
चौखट पे अदालत की बिलखने लगा है सच।

मज़हब है, जांत पांत पर इंसानियत नहीं,
तेज़ाब में नफरत की, पिघलने लगा है सच।

कसमें वो सात जन्म की, खायीं थीं रात को,
सुबह को मगर खुद से, मुकरने लगा है सच।

वो झूठ बोलकर के भी, किरदार बन गए,
तन्हा ही खुद के हाथ पर, मलने लगा सच।

अच्छाई के दामन पे लगे, स्याह के धब्बे,
काजल की कोठरी में, पलने लगा है सच।

कोशिश करो के "देव", सच को ज़िन्दगी मिले,
झूठों के हाथ हर घड़ी, छलने लगा है सच। "


चेतन रामकिशन " देव"
२२.०६.२०१८
(सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरी यह रचना मेरे ब्लॉग http://chetankavi.blogspot.com पर पूर्व प्रकाशित। )

Saturday 12 May 2018

♥सीलन...

सीलन...
आवश्यक है, स्वयं ही अपने घावों की परतों को सिलना।
बहुत कठिन है इस दुनिया में, अपने जैसा कोई मिलना।

नयनों की सीलन और लाली, आह को कोई कब सुनता है।
किसी और के पथ के कंटक, कोई व्यक्ति कब चुनता है।
बस स्वयं की ही अभिलाषा को, पूरा करने की मंशाएं,
किसी और के खंडित सपने, कोई अंतत: कब बुनता है।

करता है भयभीत बहुत ही, अपने सपनों की जड़ हिलना।
आवश्यक है, स्वयं ही अपने घावों की परतों को सिलना...

छिटक रहीं हों जब आशाएं, और ऊपर से विमुख स्वजन का।
जलधारा सा बदल लिया है, उसने रुख अपने जीवन का।
"देव " वो जिनकी प्रतीक्षा में, दिवस, माह और वर्ष गुजारे,
वो क्या समझें मेरी पीड़ा, उनको सुख अपने तन मन का।

पीड़ाओं की चट्टानों पर, मुश्किल है फूलों का खिलना।
बहुत कठिन है इस दुनिया में, अपने जैसा कोई मिलना। "


चेतन रामकिशन " देव"
१२.०५.२०१८


(सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरी यह रचना मेरे ब्लॉग http://chetankavi.blogspot.com पर पूर्व प्रकाशित। )