♥♥♥♥प्रेम संगति..♥♥♥♥
प्रेम के ज्ञान से रहित हूँ मैं!
हाँ मगर तुममें ही निहित हूँ मैं!
मुझको सिखलाना प्रेम के आख़र,
नया अंकुर हूँ, नव उदित हूँ मैं!
भूल हो जाये तो क्षमा करना!
तुम गलत बात को मना करना!
रूठकर मुझसे दूर न जाना,
मेरे सपनों को तुम बुना करना!
तेरे हित को मैं वंदना करता,
न ही घृणित, हूँ न अहित हूँ मैं!
प्रेम के ज्ञान से रहित हूँ मैं!
हाँ मगर तुममें ही निहित हूँ मैं....
प्रेम का तुमसे ज्ञान पाने को!
तेरे वंदन में सर झुकाने को!
कितना उत्सुक हूँ क्या बताऊँ तुम्हे,
तेरे संग संग कदम बढ़ाने को!
दोष हो सकते हैं बहुत मुझमे,
नव रचित काव्य सा सृजित हूँ मैं!
प्रेम के ज्ञान से रहित हूँ मैं!
हाँ मगर तुममें ही निहित हूँ मैं...
द्वेष की गंध दूर कर देना!
प्रेम की तुम सुगंध भर देना!
"देव" हाथों से मुझको छूकर के,
मुझमें चंदन का तुम असर देना!
मन से चाहा है सत्यता में तुम्हें,
न ही मिथ्या हूँ, न कथित हूँ मैं!
प्रेम के ज्ञान से रहित हूँ मैं!
हाँ मगर तुममें ही निहित हूँ मैं! "
"
कोई-कहता है प्रेम स्वत: आ जाता है, कोई कहता है प्रेम स्वयं हो जाता है, सही बात है, प्रेम हो जाता है, आ जाता है, पर प्रेम का एक पक्ष ऐसा भी है जिसमें प्रेम पुलकित तो हो जाता है, पर कोमल मन को प्रेम का गहरा अर्थ पता नहीं होता, वो उड़ना चाहता है मगर ज्ञान नहीं होता, ऐसे में उसे मिलने वाली प्रेम संगति-प्रेम पूर्ण बना देती है, और प्रेम के पुष्प सुगंध बिखेरने लगते हैं, तो आइये प्रेम करें! "
चेतन रामकिशन "देव"
दिनांक-09.06.2014
"सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरी ये रचना मेरे ब्लॉग पर पूर्व प्रकाशित "
(चित्र साभार-गूगल)
प्रेम के ज्ञान से रहित हूँ मैं!
हाँ मगर तुममें ही निहित हूँ मैं!
मुझको सिखलाना प्रेम के आख़र,
नया अंकुर हूँ, नव उदित हूँ मैं!
भूल हो जाये तो क्षमा करना!
तुम गलत बात को मना करना!
रूठकर मुझसे दूर न जाना,
मेरे सपनों को तुम बुना करना!
तेरे हित को मैं वंदना करता,
न ही घृणित, हूँ न अहित हूँ मैं!
प्रेम के ज्ञान से रहित हूँ मैं!
हाँ मगर तुममें ही निहित हूँ मैं....
प्रेम का तुमसे ज्ञान पाने को!
तेरे वंदन में सर झुकाने को!
कितना उत्सुक हूँ क्या बताऊँ तुम्हे,
तेरे संग संग कदम बढ़ाने को!
दोष हो सकते हैं बहुत मुझमे,
नव रचित काव्य सा सृजित हूँ मैं!
प्रेम के ज्ञान से रहित हूँ मैं!
हाँ मगर तुममें ही निहित हूँ मैं...
द्वेष की गंध दूर कर देना!
प्रेम की तुम सुगंध भर देना!
"देव" हाथों से मुझको छूकर के,
मुझमें चंदन का तुम असर देना!
मन से चाहा है सत्यता में तुम्हें,
न ही मिथ्या हूँ, न कथित हूँ मैं!
प्रेम के ज्ञान से रहित हूँ मैं!
हाँ मगर तुममें ही निहित हूँ मैं! "
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कोई-कहता है प्रेम स्वत: आ जाता है, कोई कहता है प्रेम स्वयं हो जाता है, सही बात है, प्रेम हो जाता है, आ जाता है, पर प्रेम का एक पक्ष ऐसा भी है जिसमें प्रेम पुलकित तो हो जाता है, पर कोमल मन को प्रेम का गहरा अर्थ पता नहीं होता, वो उड़ना चाहता है मगर ज्ञान नहीं होता, ऐसे में उसे मिलने वाली प्रेम संगति-प्रेम पूर्ण बना देती है, और प्रेम के पुष्प सुगंध बिखेरने लगते हैं, तो आइये प्रेम करें! "
चेतन रामकिशन "देव"
दिनांक-09.06.2014
"सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरी ये रचना मेरे ब्लॉग पर पूर्व प्रकाशित "
(चित्र साभार-गूगल)