Tuesday 25 June 2019

♥♥♥ज्वालामुखी... ♥♥♥

♥♥♥ज्वालामुखी... ♥♥♥
कुछ भी शेष नहीं है अब तो, नहीं कथन, न संयोजन को।
विस्मृत करना सीख रहा हूँ, मोह, हर्ष और प्रयोजन को।

विरह की ज्वालामुखी सरीखी, तपन को दिनकर दोहरी करता।
कोई मानुष नहीं था ऐसा, जो मन की उलझन को हरता।
अंबर के सब मेघदूत भी, शुष्क हो गए, रिक्त हो गए।
और हम अपने सपनों की ही, दोहनता में लिप्त हो गए।

पढ़ तो लेंगे शब्द सभी पर, कौन पढ़ेगा अंतर्मन को।
विस्मृत करना सीख रहा हूँ, मोह, हर्ष और प्रयोजन को।

नागफनी जैसे कंटक हैं चंहुओर, मन छिला हुआ है।
अब मानवता तंगहाल है, दुरित रसायन मिला हुआ है।
घृणा का विष फूल रहा अब, लुप्त प्रेम का लेप कर गए।
मैंने मांगीं थी कुछ खुशियां, वो पीड़ा की खेप भर गए।

" देव" सुनो अब क्या लिखूं मैं, इस मृत्यु जैसे जीवन को।
विस्मृत करना सीख रहा हूँ, मोह, हर्ष और प्रयोजन को। "

चेतन रामकिशन "देव "

दिनांक-२६.०६.२०१९ 

(सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरी ये रचना मेरे ब्लॉग http://chetankavi.blogspot.in पर पूर्व प्रकाशित)