Wednesday, 10 April 2019

♥हल... ♥

♥♥♥♥♥हल... ♥♥♥♥♥♥
अनवरत संघर्ष का परिणाम फिर निष्फल हुआ है।
थे उचित प्रयास किन्तु , आज फिर से छल हुआ है।
इन विषमता के क्षणों में, भय रखूं क्या हारने का,
कौनसा अश्रु बहाकर , उलझनों का हल हुआ है।

पथ में कंटक, पग में छाले, किन्तु फिर भी चल रहा हूँ,
घोर से काले तिमिर में, दीप बनकर जल रहा हूँ।

थाम ले जो आज को, उसका ही एक दिन कल हुआ है। 
कौनसा अश्रु बहाकर , उलझनों का हल हुआ है।

गीत की लय भी रुंधी है, और नमी है पंक्तियों में।
प्रेम की, अपनत्व की, भाषा कहाँ है व्यक्तियों में।
"देव " आगे देखते हैं, आग चख़कर देख लेंगे,
आज तो सलंग्न हैं बस, शाब्दिक अभिव्यक्तियों में।

अब नहीं कोई निवेदन, अपने अधरों से करूँगा।
अपने मन के घाव भी अब, औषधि के बिन भरूंगा।

मिथ्या की उपमा से पत्थर, कब भला मलमल हुआ है।
कौनसा अश्रु बहाकर , उलझनों का हल हुआ है। "

चेतन रामकिशन "देव "
दिनांक-१०-०४ -२०१९