♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥प्रेम ग्रन्थ...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
प्रेम ग्रन्थ मैं लिख नहीं सकती, जो तुम उसके पात्र नहीं हो।
सात जन्म का रिश्ता तुमसे, इसी जन्म के मात्र नहीं हो।
तुमने मुझको प्रेम सिखाया, प्रेम के सागर के तुम स्वामी,
तुममें क्षमता मन पढ़ने की, तुम प्रथम के छात्र नहीं हो।
प्रेमग्रंथ का हर एक पन्ना और समूचा सार तुम्ही हो।
कलम मेरा तुमसे प्रेरित हो, लेखन का आधार तुम्ही हो।
तुम कर्मठ हो, ज्योतिर्मय हो, तिरस्कार के पात्र नहीं हो।
तुममें क्षमता मन पढ़ने की, तुम प्रथम के छात्र नहीं हो...
प्रेम ग्रन्थ की हर पंक्ति में, महक तेरे एहसास की होगी।
होगी सोंधी खुशबु थल की, और चमक आकाश की होगी।
"देव" तुम्हारे अपनेपन के, भावों का विस्तार लिखूंगी,
मिलन के छायाचित्र में रंगत, परिणय की उल्लास की होगी।
बिना तुम्हारे संपादन के, न ही शोधन हो पायेगा।
बिना नाम का ग्रन्थ रहेगा, न उद्बोधन हो पायेगा।
प्रेम ग्रन्थ के तुम प्रवर्तक, तुम कोई पाठक मात्र नहीं हो।
प्रेम ग्रन्थ मैं लिख नहीं सकती, जो तुम उसके पात्र नहीं हो। "
......................चेतन रामकिशन "देव"…....................
दिनांक-१४.०२.२०१५
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