♥♥♥♥♥♥♥दंड...♥♥♥♥♥♥♥♥♥
विष पीने को बाध्य कर दिया।
पूरा अपना साध्य कर दिया।
मुझे दंड से नतमस्तक कर,
वो समझे आराध्य कर दिया।
मुझे नहीं आता दुख देकर,
अपनापन रेखांकित करना।
मन की कोमल वसुंधरा पर,
कंटक दुख के टंकित करना।
उनको है अभ्यास तभी तो,
दुख का वितरण कर देते हैं,
मृत्य तट तक सूख सके न,
इतने अश्रु भर देते हैं।
नहीं औषधि पारंगत है,
रोग बड़ा आसाध्य कर दिया।
मुझे दंड से नतमस्तक कर,
वो समझे आराध्य कर दिया...
अश्रु धार बहे नयनों से,
दुरित प्रकरण घटित हुआ है।
शब्द मौन हैं, कुछ न बोलें,
मन विचलित और व्यथित हुआ है।
"देव" जगत की नयी नीतियां,
मुझको समझ नहीं आती हैं,
आज यहाँ सम्बन्ध हर कोई,
नाम मात्र में निहित हुआ है।
मेरे मन का चीर हरण कर,
घायल मेरा काव्य कर दिया।
मुझे दंड से नतमस्तक कर,
वो समझे आराध्य कर दिया।"
......चेतन रामकिशन "देव"…..
दिनांक--०८.०२ .१५
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