Sunday, 22 February 2015

♥♥केंद्र बिंदु...♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥♥केंद्र बिंदु...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
जल गया दीपक सुबह का, कुछ अँधेरा थम रहा है। 
रात के व्याकुल क्षणों का मोम जो था जम रहा है। 
ओस का अमृत टपककर, गिर रहा मेरे अधर पर,
जोड़ता हूँ धीरे धीरे, शेष जितना दम रहा है। 

सोख ले जो वेदना वो, यंत्र बनना चाहता हूँ। 
कुछ क्षणों को ही सही, स्वतंत्र बनना चाहता हूँ। 

त्यागना चाहता हूँ सारा, आज तक जो भ्रम रहा है।      
जल गया दीपक सुबह का, कुछ अँधेरा थम रहा है।

भूलना चाहता हूँ उनको, वेदना जो सौंपते हैं। 
जो किसे के मन की भूमि पे, दुखों को रोंपते हैं। 
"देव" न कमजोर हूँ पर, सोचता हूँ इस दिशा में,
युद्ध क्या करना जो चाकू, पीठ तल में घोंपते हैं। 

केंद्र बिंदु पर पहुंचकर, शोध करना चाहता हूँ। 
अपने मन की शक्तियों का, बोध करना चाहता हूँ। 

अब नहीं अपनाउंगा वो, व्यर्थ का जो श्रम रहा है।  
जल गया दीपक सुबह का, कुछ अँधेरा थम रहा है। "

.................चेतन रामकिशन "देव"..................
दिनांक-२३.०२.२०१५

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