Sunday, 15 February 2015

♥♥छाँव के पेड़...♥♥


♥♥♥♥♥♥♥छाँव के पेड़...♥♥♥♥♥♥♥♥♥
हम मजहबी खेमों में, जो बंटते चले गये। 
वो पेड़ जो थे छाँव के, कटते चले गये। 

झुलसा रही है धूप गम की, जिंदगी नाखुश,
बादल जो प्यार के थे, वो छंटते चले गये। 

धरती की प्यास कैसे बुझे, कौनसी अकल,
तालाब, जो पोखर, यहाँ पटते चले गये। 

मेरा बयां, मेरी तड़प, ख़ाक वो सुनते,
जुमले जो झूठ के यहाँ, रटते चले गये। 

जिससे हुआ था इश्क़, उसको कद्र ही नहीं,
पागल थे हम उस राह जो, डटते चले गये। 

चिथड़े भी देख उनको तरस, न कोई परवाह,
ज्वालामुखी के जैसे हम, फटते चले गये। 

दिल टूटने के बाद, मुझमे आया फ़र्क़ ये,
हम "देव" अपने आप से, कटते चले गये। " 

............चेतन रामकिशन "देव"..............
दिनांक-१६.०२.२०१५

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