Friday, 22 September 2017

♥♥घातक...♥♥♥




♥♥♥♥♥♥♥घातक...♥♥♥♥♥♥♥♥
विस्फोटक की संज्ञा देकर, मुझको घातक सिद्ध कर दिया। 
मुझको खलनायक सा आखिर क्यों करके प्रसिद्द कर दिया। 
क्या अपने अधिकार के स्वर को, गुंजित करना यहाँ गलत है,
दीवारों पे अपराधी लिख, क्यों मुझको संलिब्ध कर दिया। 

ये तो घोर दमन के क्षण हैं, अभिव्यक्ति मारी जाती है। 
नायक की युद्धक क्षमता भी, देखो बेकारी जाती है। 
शत्रु, भ्रष्टाचारी, लोभी को मिलता सम्मान यहाँ पर,
हत्यारे तो विजयी हो रहे, मानवता हारी जाती है। 

निर्दोषी जीवन गतियों को, जबरन क्यों अवरुद्ध कर दिया।  
विस्फोटक की संज्ञा देकर, मुझको घातक सिद्ध कर दिया। 

क्यों आखिर दुष चलन हो रहा, क्या सज्जनता अभिशापी है। 
क्या मिथ्या है पुण्य का बिंदु, क्या पूजन हेतु पापी है।
खंडित किया जा रहे सपने, ताकत का प्रभाव बनाकर,
जाति, हिंसा, लूट मार की, चंहुओर आपाधापी है। 

गंगा सा पावन होकर भी, रेखांकन संदिग्ध कर दिया। 
विस्फोटक की संज्ञा देकर, मुझको घातक सिद्ध कर दिया।

अब अपनायत किससे रखें, किससे मन की पीर बताएं। 
लोग यहाँ पर अम्ल छिड़ककर, हँसते चेहरों को झुलसाएं। 
" देव " तपस्या कितनी कर लो, कितना कर लो करुण निवेदन,
हत्यारे हैं, कमजोरों के जीवित तन में आग लगाएं। 

अब चुप हूँ पर शत्रु मर्दन, करूँगा जिस दिन युद्ध कर दिया।   
विस्फोटक की संज्ञा देकर, मुझको घातक सिद्ध कर दिया। "

......चेतन रामकिशन "देव"……
दिनांक- 22 09 2017
(मेरी यह रचना मेरे ब्लॉग पर पूर्व प्रकाशित, सर्वाधिकार सुरक्षित )

Monday, 18 September 2017

♥♥जड़वत...♥♥

♥♥♥♥♥♥♥♥जड़वत...♥♥♥♥♥♥♥♥
सजल नयन हैं, तुम बिन पीड़ा, जड़वत मेरी गति हो गई। 
हृदय टूटकर बिखरा पथ पर, तुम बिन गहरी क्षति हो गई। 
तन, मस्तक सब केश, कंठ भी विरह भाव से प्रभावित हैं,
तुम बिन मन को कुछ न भाये, तुमको अर्पित मति हो गई। 

खाई थी सौगंध जन्म की, किन्तु नाता तोड़ रहे हैं। 
अपने स्वजन बुरे समय में, मुझसे मुख को मोड़ रहे हैं,
मैं एकाकी शिशु की भांति, बोध नहीं है युद्ध कला का,
निर्मोही होकर के मुझको, अग्निपथ में छोड़ रहे हैं। 

मुझको एकदम किया बहिष्कृत, तृप्त जो उनकी रति हो गई। 
सजल नयन हैं, तुम बिन पीड़ा, जड़वत मेरी गति हो गई ...

होकर के निर्दोष भी मुझको, क्यों कर कारावास दिया है। 
न ही सौंपी हर्ष की धरती, न सुख का आकाश दिया है। 
तुमने अपने महल दुमहले चमकाए हैं उजले पन में,
किन्तु सक्षम होकर तुमने, न मुझको प्रकाश दिया है। 

 देखो मेरी अनुभूति की, न चाहकर भी यति हो गई।  
सजल नयन हैं, तुम बिन पीड़ा, जड़वत मेरी गति हो गई.... 

लगता है बारूद भरा है, मेरे मन की दीवारों में। 
स्याह हो गया जीवन पूरा, भय लगता है उजियारों में। 
" देव " ये कैसी परिपाटी है, कैसा मन का उत्पीड़न है,
अब सावन में पतझड़ लगता, नहीं लगन अब श्रंगारों में।  

मेरी आत्मा प्रतीक्षा के अंगारों में सती हो गई। 
सजल नयन हैं, तुम बिन पीड़ा, जड़वत मेरी गति हो गई। "


......चेतन रामकिशन "देव"……
दिनांक- १८.०९.२०१७