Thursday 25 August 2011

♥बिकता बदन...♥♥♥

♥♥♥♥♥♥♥बिकता बदन...♥♥♥♥♥♥♥♥♥
"बदन बिक रहा ऐसे तेरा जैसे हो सामान!
 उस कोठे की दीवारों में, हुयी है तू गुमनाम!
 सब चाहते हैं तेरे तन को, न वो मन की पीर,
तुझको कहाँ समझते हैं वो खुद जैसा इंसान!

झूठ मूठ का तेरा सजना, धूमिल है श्रृंगार!
इन लोगों ने बना दिया है, नारी को व्यापार!

खून के आंसू रोती है तू, सपने भी बेजान!
बदन बिक रहा ऐसे तेरा जैसे हो सामान......

इस पिंजरे में रहती है तू, बनकर के लाचार!
यदि कभी कुछ कहना चाहे, तो होते प्रहार!
तुझे दे दिया जाता पल में बाजारू का नाम,
तुझे परोसा जाता ऐसे जैसे हो उपहार!

तेरी दशा है कितनी पीड़ित, क्या होगा अंदाज!
तेरे करुण रुदन से बजता, तेरे मन का साज!

बाहर से तू रोशन रहती, भीतर से वीरान!
बदन बिक रहा ऐसे तेरा जैसे हो सामान......

कौन सुनेगा इनकी पीड़ा, बने कौन हमदर्द!
नहीं मदद करता है कोई, सब देते हैं दर्द!
"देव" न जाने कब तक होगा नारी का व्यापार,
तू बिकती है हर मौसम में, गर्मी हो या सर्द!

तेरी वेदना इतनी व्यापक, लघु मेरे उदगार!
"देव" तेरे तो दर्द का केवल, छोटा हिस्सेदार!

इस पिंजरे में ही कट जाती, तेरी उम्र तमाम!
बदन बिक रहा ऐसे तेरा जैसे हो सामान!"

" सच में जाने कितनी अनगिनत ये महिलायें/ लड़कियां, बिक रही हैं! बिकना इनका लक्ष्य नहीं था, किन्तु इसी समाज के लोगों ने उसे इस दशा पर पहुँचाया है! क्या कभी इनका उत्थान हो सकेगा! या बस ये सिसक सिसक कर दम तोड़ती रहेंगी! =चेतन रामकिशन "देव"

1 comment:

धीरेन्द्र अस्थाना said...

समाज की इस चित्रकारी का चित्रकार पुरुष ही है!
चेतन जी आपका मानवता की इस विद्रूप पर यथार्थ चित्रण के लिए किया गया प्रयास सार्थक है !