♥♥♥♥♥♥♥वेदना की यात्रा..♥♥♥♥♥♥♥♥
संध्या हुई तो वेदना के दीप जल गए!
छाया तिमिर तो धूप के शोले पिघल गए!
जिनसे रखी थी मन ने समर्थन की भावना,
वो लोग ही मुंह फेर के, हमसे निकल गए!
जीवन में हर तरफ हमें, कंटक बहुत मिले!
हम भूख से पीड़ित हुए, विरह में हम जले!
मानव हैं मगर उनको, मुझपे आई न दया,
अपनों के ही हाथों से हैं, दिन रात हम छले!
मौसम वो सभी हर्ष के, देखो बदल गए!
संध्या हुई तो वेदना के दीप जल गए....
नयनों से भी अश्रु की धार बहने लगी है!
स्वप्नों की वो आधारशिला ढ़हने लगी है!
किन्तु मैं देखो "देव", यहाँ, हूँ अभी जीवित,
लगता है मेरी देह भी, दुःख सहने लगी है!
पीड़ा की तपती आग में, अश्रु उबल गए!
संध्या हुई तो वेदना के दीप जल गए!"
..............चेतन रामकिशन "देव"................
दिनांक-२९.०१.२०१३
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