♥♥शब्दों की कराह.♥♥♥♥
शब्दों का मन कराह रहा है,
कुछ कह पाना भी मुश्किल है!
आज का मानव हुआ है दानव,
नजर मिलाना भी मुश्किल है!
कुदरत की अनुपम कृति को,
नोंच रहें हैं, काम पिपासु,
पीड़ा की व्यापक क्षमता को,
अब बतलाना भी मुश्किल है!
सजा मौत की सही है लेकिन,
ये बहशीपन चलेगा कब तक!
यहाँ आदमी दानव बनकर,
मानवता को छलेगा कब तक!
रोज रोज हर चौराहे पर,
नारी की अस्मत लुटती है,
नहीं पता के इस नारी को,
इज्ज़त का हक, मिलेगा कब तक!
तन पे छाले पड़े हमारे,
अब दिखलाना भी मुश्किल है!
पीड़ा की व्यापक क्षमता को,
अब बतलाना भी मुश्किल है....
दंड नहीं है, श्राप नहीं है,
नारी होना पाप नहीं है!
नारी तो है खिले सुमन सी,
वो दुख का संताप नहीं है!
"देव" यहाँ पर देखो अब तुम,
नर-नारी को एक नजर से,
नारी का अस्तित्व है व्यापक,
वो कोई धुंआ, भाप नहीं है!
रोम रोम में दर्द है गहरा,
बदन हिलाना भी मुश्किल है!
पीड़ा की व्यापक क्षमता को,
अब बतलाना भी मुश्किल है!"
...चेतन रामकिशन "देव"...
दिनांक-२२.०४.२०१३
1 comment:
बहुत सुन्दर रचना!
बेख़ौफ़ दरिन्दे
कुचलती मासूमियत
शर्मशार इंसानियत
सम्बेदन हीनता की पराकाष्टा .
उग्र और बेचैन अभिभाबक
एक प्रश्न चिन्ह ?
हम सबके लिये.
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