Tuesday, 20 May 2014

♥♥♥मन का अपराध..♥♥♥

♥♥♥♥♥♥♥♥♥मन का अपराध..♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
सोच पे ताला कैसे डालूं, बंद करूँ कैसे भावों को!
बिना तुम्हारे कैसे भर लूँ, मैं विरह के इन घावों को!
तुमने बेहद आसानी से, मेरे प्यार को ठुकराया है,
तुम्ही बताओ कैसे तोडूं, अपने हाथों से ख्वाबों को!

भले प्यार के पथ पे मैंने, दर्द बहुत गहरा पाया है!
लेकिन मन ने चाहा तुमको, मेरे दिल ने अपनाया है!

झेल रहा हूँ अपने दिल पर, मैं पीड़ा के प्रभावों को!
सोच पे ताला कैसे डालूं, बंद करूँ कैसे भावों को...

किसी की चाहत में रंग जाना, क्या मन का अपराध यही है!
किसी के ख्वाबों में खो जाना, क्या मन का अपराध यही है!
"देव" अगर कांटे बनते हम, तो दुनिया को रास न आते,
फूल यहाँ बनकर खिल जाना, क्या मन का अपराध यही है!

अगर मैं हूँ अपराधी तो फिर, सज़ा मुझे तुम ऐसी देना !
इस दुनिया से प्यार वफ़ा के, नाम को भी तुम दफ़ना देना!

नहीं रोक सकता हाथों से, मैं अश्क़ों के सैलाबों को! 
सोच पे ताला कैसे डालूं, बंद करूँ कैसे भावों को! "

..............चेतन रामकिशन "देव"................
दिनांक-२१.०५.२०१४ 

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