Monday, 13 October 2014

♥♥♥परिंदा....♥♥♥

♥♥♥♥♥♥♥♥♥परिंदा....♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
शाम होते ही मेरे घर को लौट आता है। 
एक परिंदा है जो मुझसे वफ़ा निभाता है। 

उसकी आवाज की बेशक मुझे पहचान नहीं,
प्यार के बोल मगर मुझको वो सुनाता है! 

उसमें दिख जाती है, उस वक़्त देखो माँ की झलक,
मुझको ठंडक के लिए, पंख जो फैलाता है। 

लोग तो मिन्नतें करके भी छीनते सांसें,
ये परिंदा है जिसे, छल न कोई आता है। 

कोई मजहब ही नहीं, सबके लिए अपना वो,
कभी मंदिर, कभी मस्जिद में घर बनाता है। 

कभी तन्हाई में जो करता गुफ्तगू उससे,
अपनी पलकों को बड़े हौले से झुकाता हैं। 

"देव" उस आदमी के होंसले नहीं मरते,
वो परिंदो का हुनर, जिस किसी को आता है। "

.............चेतन रामकिशन "देव"…...........
दिनांक- १३.१०.२०१४ 

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