♥♥♥♥♥♥♥♥मन की भावना..♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
भावना मन की हमारे, अब निरुत्तर हो रही है!
वेदना मन में हमारे, अब निरंतर हो रही है!
किन्तु मेरे मुख पे फिर भी, भाव हैं प्रसन्नता के,
हाँ सही है जिंदगी ही, भीतर ही भीतर रो रही है!
मेरे हाथों की लकीरों में, न जाने क्या लिखा है!
अब तलक तो जिंदगी में, हर घड़ी ही मन दुखा है!
जिसको मैंने आस्था से, पूजकर मानव बनाया,
आज उस मानव के भीतर, द्वेष का पत्थर दिखा है!
स्वप्न की दुनिया भी देखो, क्षण में नश्वर हो रही है!
भावना मन की हमारे, अब निरुत्तर हो रही है..
किन्तु फिर भी जिंदगी से, युद्ध हर क्षण कर रहा हूँ!
अपनी माँ की सीख से मैं, कर्म निश दिन कर रहा हूँ!
मेरी माँ कहती है मुझसे, भाव बिन पाषाण है मन,
इसलिए शब्दों में अपने, भाव निश दिन भर रहा हूँ!
दुख से लड़कर जिंदगी, हर रोज प्रखर हो रही है!
भावना मन की हमारे, अब निरुत्तर हो रही है!"
..................चेतन रामकिशन "देव"...................
दिनांक--१२.०१.२०१३
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