♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥कंठ की प्यास.♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
प्यास कंठ की बुझ न पाई, बिन छाया के जला पथ में!
लोग ठोकरें मार रहे हैं, पत्थर बनकर ढला हूँ पथ में!
जब जी चाहा मुझे रुलाया, करुण निवेदन भी ठुकराया,
बिना तुम्हारे आंखें रोयीं, बिना तुम्हारे दिल मुरझाया!
फिर भी तुमसे गिला नहीं है, "देव" नहीं रंजिश है कोई,
किस्मत में जो लिखा होगा, वो सब मेरे हिस्से आया!
जिसको मैंने अपना माना, उसी के हाथों छला हूँ पथ में!
प्यास कंठ की बुझ न पाई, बिन छाया के जला पथ में!"
.................चेतन रामकिशन "देव"...................
दिनांक-०२.०४.२०१३
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