Sunday 13 April 2014

♥♥काँटों का हार…♥♥♥

♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥काँटों का हार…♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
मन में फिर धुंधला धुंधला सा, ख्वाबों का एक जाल बुना है! 
सबको दी है गुलों की माला, खुद काँटों का हार चुना है!
वैसे तो दावे करते थे, लोग हजारों अपनायत के,
साथ किसी ने नहीं दिया पर, दिल ने मेरा हाल सुना है!

इसीलिए अपनी पीड़ा को, अपने दिल से कह लेता हूँ!
सांस बहुत भारी हैं लेकिन, फिर भी जिंदा रह लेता हूँ!

असर भला कैसा होगा जब, दर्द दवा से कई गुना है!
मन में फिर धुंधला धुंधला सा, ख्वाबों का एक जाल बुना है... 

अरमानों का गला काटकर, उनको बेदम कर लेता हूँ!
नमक लगाकर मैं ज़ख्मों पर, पीड़ा को कम कर लेता हूँ!
"देव" मेरे दिल की ये बंजर, भूमि जब भी पानी मांगे,
मैं आँखों से धार बहाकर, खुद उसको नम कर लेता हूँ!

अम्बर के तारे गिन गिन कर, वक़्त रात का काट रहा हूँ!
अपने दामन से पीड़ा के, फूटे अंकुर छांट रहा हूँ!

लफ़्जों का दिल भर आया है, जब दिल का एहसास सुना है!
मन में फिर धुंधला धुंधला सा, ख्वाबों का एक जाल बुना है! "

........................चेतन रामकिशन "देव"…..................
दिनांक-१३.०४.२०१४

2 comments:

yashoda Agrawal said...

आपकी लिखी रचना मंगलवार 15 अप्रेल 2014 को लिंक की जाएगी...............
http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

Yashwant R. B. Mathur said...

बेहतरीन


सादर