♥♥♥♥♥प्रेम साधना..♥♥♥♥♥
न ही शत्रु हो न विनाशक हो!
भावनाओं की तुम उपासक हो!
प्रेम को सिद्ध कर दिया तुमने,
तुम तपस्वी हो, तुम ही साधक हो!
जब से तुमसे मिलन हुआ मेरा,
आत्मा तुममें लीन रहती है!
एक नदी प्रेम से भरी मेरे,
मन के आँगन में रोज बहती है!
मेरी वृद्धि के तुम हो सहयोगी,
न ही कंटक हो, न ही बाधक हो!
प्रेम को सिद्ध कर दिया तुमने,
तुम तपस्वी हो, तुम ही साधक हो!
न ही छल, न ही तुम अभिमानी,
न ही हिंसा की बात करती हो!
मेरी सुबह को तुम उजाला दे,
हर्ष भावों से रात करती हो!
तुम सिखाती हो सत्य की बातें,
न ही मिथ्या का तुम कथानक हो!
प्रेम को सिद्ध कर दिया तुमने,
तुम तपस्वी हो, तुम ही साधक हो!
तुम समर्पित हो तुम, तुम दयालु हो,
तुमसे आशाओं को गति मिलती!
"देव" मैं कुछ नहीं तुम्हारे बिना,
तुमसे मन को मेरे मति मिलती!
प्रेम से पूर्ण है तुम्हारी छवि,
न निराशा की तुम सहायक हो!
प्रेम को सिद्ध कर दिया तुमने,
तुम तपस्वी हो, तुम ही साधक हो!"
..........चेतन रामकिशन "देव"………
दिनांक- २७.०५.२०१४
"
प्रेम, केवल ढाई अक्षरों में सिमट जाने वाला तत्व नहीं, अपितु व्यापक है, प्रेम सम्बंधित पक्षों में, जब समर्पण भाव के साथ निहित होता है, तो प्रेम आत्मीय अवस्थाओं में साधना का रूप ले लेता है, परन्तु इस साधना को वही प्रेम तपस्वी पूर्ण कर पाते हैं, जो प्रेम के वास्तविक मूल्यों से परिचित होते हैं, जो प्रेम को ढाई अक्षरों मात्र में नहीं अपितु व्यापक अर्थों में देखते हैं, तो आइये प्रेम करें "
" सर्वाधिकार सुरक्षित, मेरी ये कविता मेरे ब्लॉग पर पूर्व प्रकाशित "
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