♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥क्यों...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
गिराना ही अगर था तो, मुझे परवाज़ क्यों दी थी।
बिछड़ कर दूर होना था, तो फिर आवाज़ क्यों दी थी।
बिना एहसास के पत्थर का ही, बुत बनके मैं खुश था,
मुझे इन्सां बनाने की तलब, आगाज़ क्यों की थी।
मेरे लफ़्ज़ों के टुकड़े हो गये हैं, चोट से गम की,
अगर था हश्र ये करना, तो उनको साज़ क्यों दी थी।
नहीं मरहम, दुआ कोई, दवा न कोई अपनापन,
तसल्ली झूठ की तुमने मेरे, हमसाज़ क्यों की थी।
कहें क्या "देव " अब तुमसे, शिकायत में भी क्या रखा,
गिला कुदरत से है किस्मत को, इतनी नाज़ क्यों दी थी। "
....................चेतन रामकिशन "देव"….................
दिनांक--१३.०१.१५
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