Wednesday, 4 March 2015

♥♥रंग रुधिर का...♥♥

♥♥♥♥रंग रुधिर का...♥♥♥♥
रंग रुधिर का बहुत बहा है।
अब अपनापन कहाँ रहा है।
बंटे बंटे त्यौहार सभी के,
मानवता ने दमन सहा है।
देश के दुश्मन निर्दोषों के,
रक्त से होली खेल रहें हैं,
है निर्धन की स्याह कोठरी,
चूल्हा, छप्पर सभी ढ़हा है।

रहें वर्ष भर पीड़ा देते,
किन्तु एक दिन रंग लगायें।
मन से मन तो मिला नहीं पर,
लेकिन सीने से लग जायें।
हाँ अच्छा है दूरी मिटना,
पर न बस खानापूरी हो।
होली का त्यौहार बाद में,
पहले न दिल में दूरी हो।

पीड़ित की तो आह निकलती,
शोषक को, आनंद अहा! है।
है निर्धन की स्याह कोठरी,
चूल्हा, छप्पर सभी ढ़हा है....

नहीं नाम को रंग लगाओ,
नहीं किसी को गले लगाओ।
नहीं मोहब्बत है जो दिल में,
साथ झूठ को, नहीं निभाओ।
"देव" किसी की लाश के ऊपर,
ताजमहल बनवाने से तो,
बेहतर है भूखे प्यासे को,
तीन वक़्त का अन्न खिलाओ।

हो सबको त्यौहार मुबारक,
हमने रब से यही कहा है। 
है निर्धन की स्याह कोठरी,
चूल्हा, छप्पर सभी ढ़हा है। "

....चेतन रामकिशन "देव".....
दिनांक-०५.०३.२०१५


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