♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥प्रेम घटक...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
तुम्हें लगा वो मृगतृष्णा थी, मुझे लगा वो प्रेम घटक था।
मैं अपने मन से रत्नाकर, तुम्हे लगा के मैं पावक था।
अपने भावों का सत्यापन, निशा दिवस तुमसे करके भी,
तुमने संज्ञा दे दी मुझको, मैं पीड़ा का संवाहक था।
अविरल जब है प्रेम की धारा, उसे लोग बाधक करते हैं।
नहीं सुनेगे भाव किसी के, केवल अपनी हठ करते हैं।
श्राप दिया उसने ही मुझको, मैं तो जिसका आराधक था।
तुम्हें लगा वो मृगतृष्णा थी, मुझे लगा वो प्रेम घटक था....
मैं मानव था, इच्छा भीं थी, पर वो भी जगदीश नहीं थे।
मेरा मन-तन उन जैसा था, क्या उनके तन शीश नहीं थे।
मैं भी जन था हाड़ मांस का, रक्त मेरे घावों में भी है,
क्यों कर उनके शब्दकोष में, मेरे हित-आशीष नहीं थे।
क्या अपराध किया जो मैंने, उनको अपना सब कुछ माना।
जिसके अश्रु पान किये थे, उसने मेरा दुःख न जाना।
मुझको काटा निर्ममता से, वृक्ष में जबकि फलदायक था।
तुम्हें लगा वो मृगतृष्णा थी, मुझे लगा वो प्रेम घटक था....
रिक्त हो गया कोष शब्द का, न कुछ भी कहने का मन है।
अब तो इतना मान लिया के, दंड भोगना ही जीवन है।
"देव" प्रेम के पूर्ण भाव से, सींचके पौधे भी क्या पाया,
मेरे पांवों में कांटे और, मेरे हिस्से सूखा वन है।
सीख लिया है अनुभूति की, गंगा नहीं बहाई जाये।
जो नहीं सुनता भाव वंदना, उसको नहीं सुनाई जाये।
वो सक्षम थे, सुन सकते थे, मैं उनके सम्मुख याचक था।
तुम्हें लगा वो मृगतृष्णा थी, मुझे लगा वो प्रेम घटक था। "
.........चेतन रामकिशन "देव"………
दिनांक-१२.०७.२०१५
" सर्वाधिकार C/R सुरक्षित।
तुम्हें लगा वो मृगतृष्णा थी, मुझे लगा वो प्रेम घटक था।
मैं अपने मन से रत्नाकर, तुम्हे लगा के मैं पावक था।
अपने भावों का सत्यापन, निशा दिवस तुमसे करके भी,
तुमने संज्ञा दे दी मुझको, मैं पीड़ा का संवाहक था।
अविरल जब है प्रेम की धारा, उसे लोग बाधक करते हैं।
नहीं सुनेगे भाव किसी के, केवल अपनी हठ करते हैं।
श्राप दिया उसने ही मुझको, मैं तो जिसका आराधक था।
तुम्हें लगा वो मृगतृष्णा थी, मुझे लगा वो प्रेम घटक था....
मैं मानव था, इच्छा भीं थी, पर वो भी जगदीश नहीं थे।
मेरा मन-तन उन जैसा था, क्या उनके तन शीश नहीं थे।
मैं भी जन था हाड़ मांस का, रक्त मेरे घावों में भी है,
क्यों कर उनके शब्दकोष में, मेरे हित-आशीष नहीं थे।
क्या अपराध किया जो मैंने, उनको अपना सब कुछ माना।
जिसके अश्रु पान किये थे, उसने मेरा दुःख न जाना।
मुझको काटा निर्ममता से, वृक्ष में जबकि फलदायक था।
तुम्हें लगा वो मृगतृष्णा थी, मुझे लगा वो प्रेम घटक था....
रिक्त हो गया कोष शब्द का, न कुछ भी कहने का मन है।
अब तो इतना मान लिया के, दंड भोगना ही जीवन है।
"देव" प्रेम के पूर्ण भाव से, सींचके पौधे भी क्या पाया,
मेरे पांवों में कांटे और, मेरे हिस्से सूखा वन है।
सीख लिया है अनुभूति की, गंगा नहीं बहाई जाये।
जो नहीं सुनता भाव वंदना, उसको नहीं सुनाई जाये।
वो सक्षम थे, सुन सकते थे, मैं उनके सम्मुख याचक था।
तुम्हें लगा वो मृगतृष्णा थी, मुझे लगा वो प्रेम घटक था। "
.........चेतन रामकिशन "देव"………
दिनांक-१२.०७.२०१५
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