Friday, 29 December 2017

♥♥अजीवित ...♥♥

♥♥♥♥♥♥♥♥अजीवित ...♥♥♥♥♥♥♥♥ 
जीवित होकर भी अजीवित, मृतप्राय सा जीवन क्या है। 
जो अपनायत, प्रेम रहित हो, ऐसा फिर मानव मन क्या है। 
मानवता को शर शैय्या पर , देखके भी अनदेखा कर दे,
खुले नयन से निर्मोही बन, आखिर ये अवलोकन क्या है। 

ये पाषाण सरीखी दुनिया, कभी कभी तो दम घुटता है। 
जब चालाक मनुज के हाथों, कोमल कोमल मन लुटता है। 

चंहुओर तो शूल चुभ रहे, दिखलाओ के उपवन क्या है।  
जीवित होकर भी अजीवित, मृतप्राय सा जीवन क्या है...


क्यों शोषण होता निर्धन का, क्यों कमजोर छले जाते हैं। 
क्यों निर्धन के अधिकारों के, पत्रक यहाँ जले जाते हैं। 
कितनी निर्ममता से निशदिन, रक्त बह रहा निर्दोषों का,
बारूदों की आंच में कितने, जग से दूर चले जाते हैं। 

हे प्रकृति ! तू ही बतला, आखिर ये प्रबंधन क्या है।
जीवित होकर भी अजीवित, मृतप्राय सा जीवन क्या है...

बस मेरी इतनी आशा है, जिसका हो, अधिकार मिल सके। 
मानवता को मनुज के हाथों, आदर और सत्कार मिल सके। 
" देव " सभी सहृदयी होकर, माला गूंथे प्रेम पुष्प की,
बने सुगन्धित वायु मंडल, रिक्त मनों को प्यार मिल सके। 

तब जाकर के समझ सकेंगे, स्वागत और अभिनन्दन क्या है। 
जीवित होकर भी अजीवित, मृतप्राय सा जीवन क्या है। "

 चेतन रामकिशन "देव"
दिनांक-२९.१२ .२०१७ 

(मेरी यह रचना मेरे ब्लॉग पर पूर्व प्रकाशित, सर्वाधिकार सुरक्षित )


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