Sunday, 1 March 2015

♥♥बादल...♥♥


♥♥♥♥♥♥♥♥बादल...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
चाँद को शायद चुप करने की ठानी है। 
इसीलिये ये बादल पानी पानी है। 

फ़र्क़ नहीं खेतों की गेंहू बिछ जाये,
बारिश की ये जिद, कैसी मनमानी है। 

टपक रहीं बूंदें, सोने को जगह नहीं,
कब इसने मजबूर की मुश्किल जानी है। 

जब जरुरत हो तब न आये बुलाने से,
ख़ाक कहाँ सूखे की इसने छानी है। 

बूंदें बेशक मोती हैं पर क्या करना,
ग्राम देवता के घर, जो वीरानी है। 

जब अम्बर से बर्फ के टुकड़े बरसेंगे,
फसलें तो हर हाल में, फिर मुरझानी है। 

"देव" न भाये बारिश ये बेमौसम की,
बतला बादल कैसी ये नादानी है। "


.........चेतन रामकिशन "देव".........
दिनांक-०१.०३.२०१५

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