♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥मन की भाषा...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
पढ़े-लिखे तो बहुत थे तुम पर, मन की भाषा जान सके न।
मेरे सीने में भी दिल था, तुम उसको पहचान सके न।
सागर जैसे आंसू देकर, मुझसे नाता तोड़ गये हो,
नाम का था शायद अपनापन, दिल से अपना मान सके न।
बस तुमसे है यही पूछना, क्यों जीवन में तुम आये थे।
इसी तरह ग़र तड़पाना था, क्यों फिर संग संग मुस्काये थे।
बड़ी बड़ी कसमें खाते थे, पर तुमको उनको ठान सके न।
पढ़े-लिखे तो बहुत थे तुम पर, मन की भाषा जान सके न...
आज कलंकित बतलाते हो, कल लेकिन पावन कहते थे।
आज मुझे मृत्यु का दर्जा, कल लेकिन जीवन कहते थे।
"देव" जहाँ में रंग बदलना, कोई सीखे आखिर तुमसे,
आज मुझे पतझड़ बतलाया, कल जबकि सावन कहते थे।
आज मेरी पीड़ा पे खुश हो, कल कैसे आंसू बहते थे।
तोड़ रहे हो तुम उस दिल को, जिस दिल में बस तुम रहते थे।
मूकबधिर मुझको कहते हो, आह मगर तुम जान सके न।
पढ़े-लिखे तो बहुत थे तुम पर, मन की भाषा जान सके न। "
......................चेतन रामकिशन "देव"......................
दिनांक-०७.०३.२०१५
No comments:
Post a Comment