Sunday, 5 April 2015

♥♥ डर...♥♥

♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥ डर...♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥♥
निकट रहो तुम, दूर न जाओ, रात में तुम बिन डर लगता है। 
तुम बिन आँगन तन्हा तन्हा, सूना सूना घर लगता है।  
बिना तुम्हारे नींद न आये, बेचैनी के भाव पनपते,
बिना तुम्हारी गोद को पाये, व्याकुल मेरा सर लगता है। 

तुमसे मन का गहरा नाता, दूर नहीं तुम जाया कीजे। 
अनजाने में भी विरह का, कहर न मुझपे ढ़ाया कीजे। 

तुम बिन नयन मेरे गीले हों, अश्रु का सागर लगता है। 
निकट रहो तुम, दूर न जाओ, रात में तुम बिन डर लगता है... 

तुम रहती हो साथ अगर तो, सारा आलम खुश रहता है। 
न विरह के भाव पनपते, अपना गम भी चुप रहता है। 
"देव" तुम्हारी बातें होतीं, चित्त को हर्षित करने वाली,
और पाकर के तेरी निकटता, भावों का साग़र बहता है। 

प्रेम का तुमसे उद्बोधन है, वाणी नहीं दबाया कीजे। 
मैं जब बोलूं, मिलन करेंगे, तो एक दम आ जाया कीजे ।

तुम बिन देखो हवा का झोंका, मानो के नश्तर लगता है। 
निकट रहो तुम, दूर न जाओ, रात में तुम बिन डर लगता है। "

.......................चेतन रामकिशन "देव"…........................
दिनांक-०५.०४.२०१५

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